अपने हाथों से जब होगा -
अपनी स्थिति में परिवर्तन ,
फिर निराश क्यों होता है मन ।
हमने ही तारों की सारी क्रिया बनाई ,
हमने ही नापी जब सागर की गहराई ;
हमने ही जब तोड़े अपनी-
हर इक सीमाओं के बन्धन ।
फिर निराश ......................
मेरी पैनी नज़रों ने ही खोज निकाले,
खनिज अंधेरी घाटी से भी ;
हमने अपने मन की गंगा सदा बहाई,
चीर के चट्टानों की छाती से भी ;
कदम बढ़ाओ लक्ष्य है आतुर -
करने को तेरा आलिंगन ।
फिर निराश...................
मत सहलाओ पैर के छालों को रह - रह कर ,
ये तो सचे राही के पैरों के जेवर ,
मत घबराओ तूफानों से या बिजली से-
नहीं ये शाश्वत क्षण भर के मौसम के तेवर ;
धीरे धीरे सब बाधाएँ थक जाएँगी -
तब राहों के अंगारे भी बन जाएँगे शीतल चंदन ।
फिर निराश .........................
- विनय ओझा स्नेहिल
Tuesday, June 12, 2007
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