Monday, December 10, 2007

वक्त भर देता है ...

वक़्त भर देता है हर एक ज़ख्म की गहराईयाँ ।
फिर भी रह जाती हैं क्यों ये मातमी परछाइयाँ ॥

या खुदा एक पल में दिखता दो तरह ज़लवा तेरा-
एक तरफ मातम का डेरा एक तरफ शहनाइयाँ ॥

स्याह रातों से न जाने दिल क्यों घबराने लगा-
साँप सी डसती हैं मुझको शाम की तन्हाइयाँ ॥

दफन अश्कों ने किया ग़म के कई तूफान को -
दर्द भरती हैं नसों में मद भरी पुर्वाईयाँ ॥

जो सबेरे उठ गए मीलों सफर से आ चुके-
रह गए बिस्तर पे जो लेते रहे अन्गडाइयां॥

जिनको चुन कर भेजा अपनी रहनुमाई के लिए -
बैठ कर सदनों में वे लेते हैं अब जम्हाइयां ॥

विनय ओझा 'स्नेहिल'

Thursday, November 22, 2007

ठोकरें राहों में मेरी कम नहीं।
भी देखो आँख मेरी नम नहीं।

जख्म वो क्या जख्म जिसका हो इलाज-
जख्म वो जिसका कोई मरहम नहीं।

भाप बन उड़ जाऊंगा तू ये न सोच-
मैं तो शोला हूँ कोई शबनम नहीं।

गम से क्यों कर है परीशाँ इस क़दर -
कौन सा दिल है कि जिसमें ग़म नहीं।

चंद लम्हों में सँवर जाए जो दुनिया -
ये तेरी जुल्फों का पेंचो-ख़म नहीं।

दाद के काबिल है स्नेहिल की गज़ल-
कौन सा मिसरा है जिसमें दम नहीं।

-विनय ओझा ' स्नेहिल'

Friday, November 2, 2007

जिंदगी

ज़िन्दगी क्यों उदास लगती है ।
मौत जब आस- पास लगती है ॥

मुझसे वह बिन मिले नहीं जाता -
कुछ तो दिल में खटास लगती है॥

कितने अर्सों से देखता हूँ उसे -
फिर भी हर लम्हा ख़ास लगती है॥

जितनी कोशिश करो बुझाने की -
उतनी ही ज्यादा प्यास लगती है॥

मर के भी आंख थी खुली उसकी -
उनको मेरी तलाश लगती है ॥

- विनय ओझा "स्नेहिल "

Friday, October 26, 2007

कता

उम्मीद की किरण लिए अंधियारे में भी चल।
बिस्तर पे लेट कर ना यूँ करवटें बदल।

सूरज से रौशनी की भीख चाँद सा न मांग,
जुगनू की तरह जगमगा दिए की तरह जल ॥

-विनय ओझा स्नेहिल

Tuesday, October 16, 2007

कता

राह में जब जब अँधेरे हो गए ।
रहनुमा मेरे लुटेरे हो गए ॥

बैठते थे फाखते जिस शाख़ पे -
चील और कौओं के डेरे हो गए।।

विनय ओझा 'स्नेहिल '

Tuesday, October 9, 2007

दीवार की काई की तरह .......

अपनी उम्मीद है दीवार की काई की तरह ।
फिर भी ज़िन्दा है खौफ़नाक सचाई की तरह॥

पेट घुटनों से सटा करके फटी सी चादर -
ओढ़ लेता हूँ सर्दियों में रजाई की तरह ॥

आँधियाँ गम की और अश्कों की उसपर बारिश -
साँस अब चलती है सावन की पुरवाई की तरह ॥

जाने यह कौन सी तहज़ीब का दौर आया है-
बात अब अच्छी भी लगती है बुराई की तरह ॥

सारी जनता तो उपेक्षित है बरातीयों सी -
और नेताओं की खातिर है जमाई की तरह ॥

- विनय ओझा ' स्नेहिल '

Tuesday, September 25, 2007

दृष्टि-दोष

इस दुनिया में -
न कोई अमीर है ,

न कोई गरीब है,
न कोई बड़ा है ,
न कोई छोटा है,
न कोई सुखी है ,
न कोई दुःखी है ,
हर कोई इस दुनिया में -
अमीर है ,
गरीब है ,
बड़ा है ,
छोटा है ,
सुखी है,
दुःखी है ,
बीरबल की खींची गयी-
लकीर की तरह ,
एक दुसरे की तुलना में,
एक दुसरे की तुलना में ।

-विनय ओझा स्नेहिल

Monday, September 24, 2007

नहीं मिलती मंज़िल

नहीं मिलती मंज़िल
बैठ कर सपनों के
उड़न-खटोलों पर ।
नहीं मिलती मंज़िल -
बैठ कर प्रतीक्षा करने से
सघन कुञ्ज की शीतल छाया में ,
बल्कि इसके लिए
चलना पड़ता है निरंतर
कांटो भरे पथ पर
पलकों पर लिए
आशा के दीप
उपेक्षा कर
पैर के छालों को ॥

-विनय ओझा स्नेहिल

Thursday, September 20, 2007

कता

हम मुश्किलों से लड़ कर मुकद्दर बनाएँगे।
गिरती हैं जहाँ बिजलियाँ वहाँ घर बनाएँगे।।

पत्थर हमारी राह के बदलेंगे रेत में -
हम पाँव से इतनी उन्हें ठोकर लगाएँगे॥

-विनय ओझा स्नेहिल

Friday, September 14, 2007

कता

ख़यालों में तूं आ गया सोते सोते ।
तो दिल में सुकूँ आ गया रोते रोते।

मेरे जख्म ए दिल की नज़ाकत न पूंछो-
निगाहों से खूं आ गया रोते रोते॥

-विनय ओझा स्नेहिल

Friday, August 24, 2007

हर एक शख्स बेज़ुबान .....

हर एक शख्स बेज़ुबान यहाँ मिलता है ।
सभी के क़त्ल का बयान कहाँ मिलता है॥

यह और बात है उड़ सकते हैं सभी पंछी -
फिर भी हर एक को आसमान कहाँ मिलता है॥

सात दिन हो गए पर नींद ही नहीं आयी -
दिल को दंगों में इत्मीनान कहाँ मिलता है॥

न जाने कितनी रोज़ चील कौवे खाते हैं -
हर एक लाश को शमशान कहाँ मिलता है॥
-विनय ओझा स्नेहिल

Thursday, August 16, 2007

सिर्फ चाहे से....

सिर्फ चाहे से पूरी कोई भी ख्वाहिश नहीं होती।
जैसे तपते मरुस्थल के कहे बारिश नहीं होती॥

हमारे हौसलों की जड़ें यूँ मज़बूत न होतीं -
मेरे ऊपर जो तूफानों की नवाज़िश नहीं होती॥

हमे मालूम है फिर भी संजोकर दिल मे रखते हैं-
जहाँ मे पूरी हर एक दिल की फरमाइश नहीं होती॥

कामयाबी का सेहरा आज उनके सिर नहीं बंधता -
पास जिनके कोई उंची सी सिफारिश नहीं होती॥

हज़ारों आँसुवों के वो समंदर लाँघ डाले हैं-
दूर तक तैरने की जिनमे गुंजाइश नहीं होती॥

खुदा जब नापता है तो वो फीता दिल पे रखता है-
उससे इन्सान की जेबों से पैमाइश नहीं होती॥

-विनय ओझा स्नेहिल

Sunday, August 5, 2007

फिर क्या कहना ?

लोकतंत्र में अपराधी को माल्यार्पण फिर क्या कहना ?
जेल से आकर जनसेवा का शपथग्रहण फिर क्या कहना ?

जिनके हाथ मे ख़ून के धब्बे चौरासी के दंगो के-
बापू की प्रतिमा का उनसे अनावरण फिर क्या कहना ?

एक विधेयक लाभों के पद पर बैठाने की खातिर।
लाभरहित सूची मे उसका नामकरण फिर क्या कहना ?

कितने फांसी पर झूले थे जिस आज़ादी की खातिर -
सिर्फ दाबती खादी ही के आज चरण फिर क्या कहना ?

बार बार मैं दिखलाता हूँ अपने हाथों मे लेकर -
नहीं देखते अपना चेहरा ले दर्पण फिर क्या कहना ?

-विनय ओझा स्नेहिल

Friday, July 20, 2007

खलनायक हैं खड़े हुए

जननायक बैठ रहे हैं भय से ,
खलनायक हैं खड़े हुए।
खलनायक हैं खड़े हुए।।

राम, कृष्ण ,शिवाजी, राणा प्रताप ,
छूट चुके आज बहुत पीछे हैं।
शकुनी,जैचंद, कंस और मीर्जाफर ही ,
मंच पर पल्थी मारे बैठे हैं ।

विदुर भीष्म के मुख पर -
ताले अब हैं जड़े हुए॥

चोर उचक्कों के हम पर अब पहरे हैं,
जिन्हे चुना जनप्रतिनिधि गूंगे और बहरे हैं,

नाम हरिश्चंद पर -
अपराध जगत से जुडे हुए॥

झूठे और सच की पहचान आज मुश्किल है,
रखना सुरक्षित ईमान यहाँ मुश्किल है,

चाँदी के ऊपर अब -
सोने के रंग चढ़े हुए॥

-विनय ओझा स्नेहिल

Thursday, July 19, 2007

चतुष्पदी

हर घड़ी एक हादसे का डर लिए है देखिए।

भीड़ अपने हाथ में पत्थर लिए है देखिए।



शाम को जो घर से अपने निकला था बाज़ार को

कोई उसका धड़ लिए कोई सर लिए है देखिए॥



विनय ओझा स्नेहिल

Wednesday, July 18, 2007

मुक्तक

बेहतर है छोड़ दो हमे तुम अपने हाल पर।
पैसे तो न खाओ मेरे हक़ के सवाल पर॥

जो हाथ चुने हमने खुद अपनी मदद को -
बन कर तमाचा बरसते हैं मेरे गाल पर ॥


खुल कर जवाब दीजिए अब मेरी बात का -
नज़रें चुराइए ना हमारे सवाल पर ॥

-विनय ओझा स्नेहिल

Wednesday, July 11, 2007

देख लो अब भैया ।

सच की खिंचती खाल देख लो अब भैया।
झूठ है मालामाल देख लो अब भैया॥

आगजनी ही जिसने सीखा जीवन में ,
उनके हाथ मशाल देख लो अब भैया॥

चोरी लूट तश्करी जिनका पेशा है,
वाही हैं द्वारपाल देख लो अब भैया॥

माली ही जब रात में पेड़ों पर मिलता है ,
किसे करें रखवाल देख लो अब भैया॥

बंदूकों से छीन के ही जब खाना हो-
भांजे कौन कुदाल देख लो अब भैया॥

-विनय ओझा स्नेहिल

Monday, July 9, 2007

रात की क़ैद मे हैं उजाले

रात की क़ैद में हैं उजाले ।
बैठे हम हाथ पर हाथ डाले ॥

लाश पहचान में आ सकी ना -
चील कौओं ने यूँ नोच डाले।

राज फैला है तब तब असत् का -
सत्य ने जब भी हथियार डाले ।

राह में आ गया जो भी पत्थर -
पाँव से हम उसे तोड़ डाले ।

रोएगी मौत पर मेरे दुनिया -
देखकर के मुझे मुस्करा ले ।


सब्र का बाँध जब टूटता है -
दिल संभलता नहीं है संभाले ।

गर्म बाज़ार हैं कुर्सियों के -
दाम इतने सदन ने उछाले।


वह अदालत में सच कैसे बोले-
होंठ पर खौफ के हैं जो ताले ।
- विनय ओझा स्नेहिल

Thursday, July 5, 2007

मेरी किश्ती नहीं डरती भंवर से

मेरी किश्ती नहीं डरती भंवर से।
सुलह तूफ़ान की न हो लहर से ॥

कभी दुनिया में उठ नहीं सकते वो,
जो गिर जाते हैं अपनी ही नज़र से ।

तजुर्बों में मैं पुख्ता हो गया हूँ ,
हमारी अक्ल न नापो उमर से।

उसूलों पर हमारे चोट मारो,
नहीं मैं मरने वाला हूँ ज़हर से।

किसी रहमत का साया था न हम पर ,
हमे जो भी मिला अपने हुनर से ।

इसी उम्मीद पे बैठे हैं अब तक ,
अभी गुजरेंगे वो शायद इधर से ।

ठहर जाने पे लकवा मार देगा ,
मेरे पावों में ताकत है सफ़र से ।

-विनय ओझा स्नेहिल

Tuesday, June 19, 2007

धन्यवाद तेरा कंप्यूटर

दुनिया के कोने कोने में-
चाहे शख्स कहीं बैठा हो ,
संवादों से जुड़ा हुआ है इन्टरनेट पर;
धन्यवाद तेरा कंप्यूटर॥

जैसे ग्रंथों में रक्खा है -
ज्ञान का एक अनमोल खजाना ,
उसी तरह इन्टरनेट रखता -
ज्ञान भरे हर लेख यहाँ पर,
गीता वेद पुराण रामायण-
बाइबिल और कुरान सभी हैं,
कोई ग्रंथ खोज लो इस पर-
ग्रंथों की तो कमी नहीं है।

महिमा गुरू से कम न तेरी
यह विशवास तुम्हारे ऊपर ।।

कोई प्रश्न उभरता मन में-
या हो कोई बात जाननी,
कोई कठिनाई जीवन में-
इसके पास तो बैठो छण भर,
गागर में भर डाला कैसे?
इतने गहरे ज्ञान का सागर,

इतना ज्ञान मुफ़्त में मिलता ,
तेरे चंद बटन के ऊपर ॥
-विनय ओझा स्नेहिल

Tuesday, June 12, 2007

गीत

अपने हाथों से जब होगा -
अपनी स्थिति में परिवर्तन ,
फिर निराश क्यों होता है मन ।

हमने ही तारों की सारी क्रिया बनाई ,
हमने ही नापी जब सागर की गहराई ;
हमने ही जब तोड़े अपनी-
हर इक सीमाओं के बन्धन ।
फिर निराश ......................

मेरी पैनी नज़रों ने ही खोज निकाले,
खनिज अंधेरी घाटी से भी ;
हमने अपने मन की गंगा सदा बहाई,
चीर के चट्टानों की छाती से भी ;

कदम बढ़ाओ लक्ष्य है आतुर -
करने को तेरा आलिंगन ।
फिर निराश...................

मत सहलाओ पैर के छालों को रह - रह कर ,
ये तो सचे राही के पैरों के जेवर ,
मत घबराओ तूफानों से या बिजली से-
नहीं ये शाश्वत क्षण भर के मौसम के तेवर ;

धीरे धीरे सब बाधाएँ थक जाएँगी -
तब राहों के अंगारे भी बन जाएँगे शीतल चंदन ।
फिर निराश .........................
- विनय ओझा स्नेहिल

मन पर अधिकार तुम्हारा है

तन तो मेरा है लेकिन -
मन पर अधिकार तुम्हारा है।

मेरी साँसों में सुरभित ,
तेरी चाहत का चंदन है ;
कहने को तो ह्रदय हमारा ;
पर इसमें तेरी धड़कन है।

तेरी आंखों से जो छलके -
है वो प्यार हमारा है ।।

मेरे शब्द गीत के रखते
तेरी पीड़ा के स्पंदन ;
कलिकाए ही अनुभव करतीं
भ्रमरों के वो कातर क्रन्दन;

मैं वो मुरली की धुन हूँ -
जिसमें गुंजार तुम्हारा है॥

चाह बहुत है मिलने की -
अवकाश नहीं मिलता है ;
दोष नियति का भी कुछ है -
जो साथ नहीं नहीं मिलता है ;

सोम से शनि तक मेरा है -
लेकिन इतवार तुम्हारा है॥
-विनय ओझा स्नेहिल

Monday, June 11, 2007

अशआर

मुस्कराहट पाल कर होंठों पे देखो दोस्तो-
मुस्करा देगा यकीनन गम भी तुमको देखकर ।

थाम लेगा एकदिन दामन तुम्हार आसमाँ -
धीरे धीरे रोज ग़र उंचा अगर उठते रहे ।

यह और है कि हसीनों के मुँह नहीं लगते-
वरना रखते हैं जिगर हम भी अपने सीने में ।

पाँव में ज़ोर है तो मिल के रहेगी मंज़िल -
रोक ले पाँव जो ऐसा कोई पत्थर ही नहीं ।
-विनय ओझा स्नेहिल

कविता

दिल के सुराग जिनकी निगाहों में मिले थे ।
कल रात को वो ही मुझे ख्वाबों में मिले थे।

इतनी सी बात थी मगर रुसवा हुए हम लोग ,
ख़त मेरे लिखे उनकी किताबों में मिले थे ।।
-विनय स्नेहिल

Friday, June 8, 2007

सिवा अपने इस जगत का ...

सिवा अपने इस जगत का आचरण मत देखिए.
काम अपना है तो औरों की शरण मत देखिए.
होती हैं हर पुस्तक में ज्ञान की बातें भरी,
खोलकर पढ़िए भी इसको आवरण मत देखिए.
कंटकों के बीच खिल सकता है कोई फूल भी,
समझने में व्यक्ति को वातावरण मत देखिए.
लक्ष्य पाना है तो सुख की कल्पनाएं छोड़ दो,
लक्ष्य ही बस देखिए आहत चरण मत देखिए.
यदि समझना चाहते हो जगत के ध्रुवसत्य को
आत्मा को देखिए जीवन मरण मत देखिए.
विनय स्नेहिल




ग़ज़ल

मार दे खुद को तो जीने का मज़ा मिल जाएगा।
बेखुदी में डूबकर देखो खुदा मिल जाएगा ।
तृप्ति को क्यूँ ढूँढता है बोतलों में किस लिए ,
ग़र जियो मस्ती में तो यूं ही नशा मिल जाएगा।
मैं नहीं परवाना जो जाकर शमां पर जान दे ,
तूं न मिल पाया तो कोई दूसरा मिल जाएगा ।
बेइरादा चलने से कोई पहुँचता है नहीं ,
पहले मंज़िल तो चुनो फिर रास्ता मिल जाएगा।
क्यों परीशाँ हो रहा है तूं बहारों के लिए ,
फिर खिज़ां के बाद ही मंज़र हरा मिल जाएगा।
इस शहर में दोस्तो स्नेहिल बड़ा मशहूर है ,
चाहे जिससे पूंछ्लो उसका पता मिल जाएगा ।
-विनय ओझा स्नेहिल

दर्दे गम

दर्दे गम सीने में अपने दबा तो सकते हैं ।
सुकूँ मिले ना मिले मुस्करा तो सकते हैं ।
यूं ज़रूरी नहीं हर ख्वाब का पूरा होना ,
कम से कम दिल को पल भर भुला तो सकते हैं ।
खुदकशी करनी है तो बाद में भी कर लेंगे ,
अपनी किस्मत को फिर से आजमा तो सकते हैं।
साथ में हम हैं तो फिर दाम की परवाह न कर,
हम नहीं पीते हैं फिर भी पिला तो सकते हैं।
जितना ज्यादा हो गम का बोझ मेरे सर पे रख ,
जितना
भारी हो मगर हम उठा तो सकते हैं।

विनय स्नेहिल

ग़ज़ल

हाले दिल सबसे छिपाना नहीं अच्छा होता।
फिर भी हर इक से बताना नहीं अच्छा होता।
आज का जख्म कल नासूर भी बन सकता है ,
दर्द कोई हो दबाना नहीं अच्छा होता।
दिल की चोरी बस एक बार ही वाज़िब होती ,
इससे ज्यादा भी चुराना नहीं अच्छा होता।
तेरे ऊपर जो भरोसा है न उठ जाए कहीं ,
अपने लोगों से बहाना नहीं अच्छा होता ।
थोड़ी थोड़ी ही पियो लुत्फे इजाफा होगा ,
प्यास अचानक भी बुझाना नहीं अच्छा होता।
विनय स्नेहिल

Thursday, June 7, 2007

सोंचो क्या ?

सोंचो क्या यह दुनिया में , हैरत की बात नहीं ?
कितने सीने में दिल हैं ,लेकिन जज्बात नहीं।
रहे कहॉ भगवान् न मंदिर मस्जिद में जाये तो -
काशी या काबा जैसा कोई दिल पाक़ नहीं ॥
-विनय ओझा स्नेहिल
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ग़ज़ल
यह ज़माना इस क़दर दुश्मन हमारा हो गया।
ख्वाब जो देखा था वो दिनका सितारा हो गया ॥
मेरे सीने में पला फिर भी ना मेरा हो सका -
इक नज़र देखा नहीं कि दिल तुम्हारा हो गया।
चाहतें कितनों की फूलों की अधूरी ही रहीं -
उम्र भर कांटों पे चलकर ही गुज़ारा हो गया ।
एक शै को देख कर सबने अलग बातें कहीँ -
नज़रिया जैसा रहा वैसा नज़ारा हो गया ।
वाकफियत तक नहीं महदूद मेरी दोस्ती -
मुस्करा कर जो मिला वो ही हमारा हो गया ।

-विनय ओझा स्नेहिल
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भूल जाऊं मुझे सदा मत दे ।
आतिश- ए इश्क को हवा मत दे ॥
हमने किश्तों में खुदकशी की है -
और जीने की बद्दुआ मत दे ।
मैं अकेला दिया हूँ बस्ती का -
कोई जालिम हवा बुझा मत दे।
एक यही हमसफ़र हमारा है -
दर्देदिल कि हमें दवा मत दे ।
वो कतिलों के साथ रहता है -
अपने घर का उसे पता मत दे ।
घुटके दम ही ना तोड़ दे स्नेहिल
उसको इतनी कड़ी सज़ा मतदे।

-विनय ओझा स्नेहिल

Monday, May 28, 2007

कैसे मानूं

उन्हें चेतना का संवाहक कैसे मानूं?
खल नायक को जननायक कैसे मानूं?
जो चप्पल तक बरसाते हैं सदनों में,
जन गण मन का अधिनायक कैसे मानूं?
जिन्हें बनाते डरता हूँ अभिभावक बच्चों का ,
उन्हें देश का अभिभावक कैसे मानूं?
जिन्हें बनाना नहीं चाहता द्वारपाल अपने घर का,
उन्हें राज्यपाल पद लायक कैसे मानूं?
विनय स्नेहिल

Monday, May 7, 2007

चतुष्पदियाँ

हम मुश्किलों से लड़ कर मुकद्दर बनाएँगे.
गिरती हैं जहाँ बिजलियाँ वहाँ घर बनाएँगे.
पत्थर हमारी राह के बदलेंगे रेत में -

हम पाँव से इतनी उन्हें ठोकर लगाएँगे..
-विनय ओझा स्नेहिल

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उम्मीद की किरण लिए अंधियारे में भी चल.
बिस्तर पे लेट कर ना यूँ करवटें बदल.

सूरज से रौशनी की भीख चांद सा न मांग,
जुगनू की तरह जगमगा दिए की तरह जल ..
-विनय ओझा स्नेहिल