उम्मीद की किरण लिए अंधियारे में भी चल।
बिस्तर पे लेट कर ना यूँ करवटें बदल।
सूरज से रौशनी की भीख चाँद सा न मांग,
जुगनू की तरह जगमगा दिए की तरह जल ॥
-विनय ओझा स्नेहिल
Friday, October 26, 2007
Tuesday, October 16, 2007
कता
राह में जब जब अँधेरे हो गए ।
रहनुमा मेरे लुटेरे हो गए ॥
बैठते थे फाखते जिस शाख़ पे -
चील और कौओं के डेरे हो गए।।
विनय ओझा 'स्नेहिल '
रहनुमा मेरे लुटेरे हो गए ॥
बैठते थे फाखते जिस शाख़ पे -
चील और कौओं के डेरे हो गए।।
विनय ओझा 'स्नेहिल '
Tuesday, October 9, 2007
दीवार की काई की तरह .......
अपनी उम्मीद है दीवार की काई की तरह ।
फिर भी ज़िन्दा है खौफ़नाक सचाई की तरह॥
पेट घुटनों से सटा करके फटी सी चादर -
ओढ़ लेता हूँ सर्दियों में रजाई की तरह ॥
आँधियाँ गम की और अश्कों की उसपर बारिश -
साँस अब चलती है सावन की पुरवाई की तरह ॥
जाने यह कौन सी तहज़ीब का दौर आया है-
बात अब अच्छी भी लगती है बुराई की तरह ॥
सारी जनता तो उपेक्षित है बरातीयों सी -
और नेताओं की खातिर है जमाई की तरह ॥
- विनय ओझा ' स्नेहिल '
फिर भी ज़िन्दा है खौफ़नाक सचाई की तरह॥
पेट घुटनों से सटा करके फटी सी चादर -
ओढ़ लेता हूँ सर्दियों में रजाई की तरह ॥
आँधियाँ गम की और अश्कों की उसपर बारिश -
साँस अब चलती है सावन की पुरवाई की तरह ॥
जाने यह कौन सी तहज़ीब का दौर आया है-
बात अब अच्छी भी लगती है बुराई की तरह ॥
सारी जनता तो उपेक्षित है बरातीयों सी -
और नेताओं की खातिर है जमाई की तरह ॥
- विनय ओझा ' स्नेहिल '
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