Monday, January 7, 2008

ग़ज़ल

अब सुनाई ही नहीं देती है जनता की पुकार।
इस तरह छाया हुआ है उनपे गद्दी का खुमार ॥

अब दुकानों से उधारी दूर की एक बात है-
जब बगल वाले नहीं देते हैं अब हमको उधार ॥

लाँघ पाना या गिरा पाना जिसे मुमकिन नहीं -
हर दिलों के दरमियाँ नफरत की है ऊँची दिवार॥

सैकड़ों बगुलों ने मिल घेरा है एक दो हंसों को-
लगता नामुमकिन है लाना अब सियासत में सुधार॥

खुद की कुर्बानी का जज्बा गुम गया जाने कहाँ-
इस शहर में हर कोई है लूटने को अब तयार॥


-विनय ओझा 'स्नेहिल '