Sunday, November 8, 2009

“समलैंगिकों और किन्नरों को सरकारी पदों पर शत प्रतिशत आरक्षण”



मैं सोच रहा हूं कि केन्द्र सरकार को एक पत्र लिखूं और कुछ सुझाव दूँ ताकि अरसों से अपनी गरिमा और अस्मिता की रक्षा के लिए संघर्ष करते आ रहे लोगों (समलैंगिकों तथा किन्नरों) के आन्दोलन में सहभागिता का गौरव अर्जित कर सकूँ। इससे देश की ढेर सारी सामाजिक और राजनैतिक समस्याओं जैसे दहेज, भ्रष्टाचार, महंगाई आदि को कुछ ही सालों में जड़ से खत्म किया जा सकेगा। जबकि अब तक की लगभग सभी सरकारें इन्हें खत्म करने का दावा तो करती रही हैं किंतु इन्हें असाध्य रोग मान कर एड्स की तरह औपचारिक रूप से इलाज करती रही हैं और यह सोच कर कि जनता की गरीबी तो मिटा नहीं सकते, चलो अपनी ही मिटा लें। आज़ादी के बाद से सभी सरकारों और राजनेताओं ने, चाहे वे किसी भी दल के हों, इसी तरीके से जनसेवा की है और ऐसे ही करते जाने की आशा है।

अरे आप को आश्चर्य हो रहा होगा कि समलैंगिकों तथा किन्नरों के आन्दोलन और गरीबी, भ्रष्टाचार तथा महँगाई का इंससे क्या सम्बन्ध है? मै कहता हूँ यही तो हमारे शोध का विषय है। यदि समलैंगिकों तथा किन्नरों को संसद, न्यायपालिका और पुलिस विभाग में शत प्रतिशत आरक्षण दे दिया जाय तो न केवल भ्रष्टाचार से मुक्ति मिल जाएगी बल्कि सदियों से उपेक्षित इस अल्पसंख्यक समुदाय के सम्वैधानिक अधिकारों की रक्षा भी होगी। साथ ही ढेर सारी समस्याओं का एक ही साथ समाधान हो जाएगा। समलैंगिकों का कोई परिवार नहीं होता। बस वह और दूसरा साथी। परिवार तो उनके साथ रहने का साहस जुटा ही नहीं पाता, इसलिए उनसे रिश्ता ही तोड़ लेता है। बच्चे पैदा होने और उनके पालन पोषण ,शिक्षा-दीक्षा, शादी व्याह के खर्चों की दूर- दूर तक कोई सम्भावना नहीं रहती है। दूर दूर तक रिश्तेदारी में भी कोई अपने बच्चे को इनके साथ रहने की अनुमति देना खतरे से खाली नहीं समझता। इस महँगाई और आर्थिक मन्दी के दौर में ईमानदार आदमी किसी तरह से रोटी-दाल और बाल बच्चों की शिक्षा-दीक्षा में जीवन भर तबाह रहता है और उसके आदर्शों तथा ईमानदारी को समाज के विकसित लोग मूर्खता का पर्याय समझ कर उसका मज़ाक उड़ाते हैं। ऐसे में जब इन सरकारी विभागों में समलैंगिकों को आरक्षण दिया जाएगा तो निश्चित रूप से भ्रष्टाचार पर काबू पाया जा सकेगा। क्योंकि उनके पास न तो असीमित परिवार होंगे और न उन पर खर्च। ऐसी स्थिति में सरकार की ओर से दिया जाने वाला वेतन बड़ी कठिनाई से खर्च हो सकेगा। जिसका परिणाम यह होगा कि पग–पग पर चौराहों पर तैनात ट्रैफिक पुलिस बस, मोटरसायकिल और ट्र्क वालों को रोक रोक कर उनसे वसूली करती नज़र नहीं आएगी। तब थानों पर तैनात पुलिस अपेक्षित धाराओं में अपेक्षित व्यक्ति के विरुद्ध अपराध को अंकित करने के लिए सौदेबाज़ी करती नज़र नहीं आएगी। न्यायालयों मे ऐसे दृश्य नहीं दिखेंगे जब कुर्सी पर बैठा न्यायाधीश अपनी गर्दन नीचे कर अपनी अनभिज्ञता का दिखावा करने लगता है और पेशकार हर मुकदमे में तारीख की रिश्वत आधिकारिक रूप से लेता रहता है, जिनको कि अन्याय से लड़ने के लिए ही सरकारी पद पर आधिकारिक रूप से बिठाया गया है। तब राजनेता अपनी सात पुश्तों तक को सुखी बनाए रखने के लिए लोक कल्याणकारी योजनाओं में लगने वाले धन का घपला नहीं किया करेगा। सरकारी सेवकों और लोकसेवकों को जिनके परिवार के खर्च उनकी आय से ज्यादा हो जाया करते हैं और उन्हें असुरक्षा की भावना सताती है, परिणाम-स्वरूप उन्हें आय से अधिक सम्पत्ति अर्जित करने का जुगाड़ करना पड़ता है और जन कल्याणकारी योजनाओं में लगने वाले धन में हेराफेरी करनी पड़ती है, उन्हें ऐसा करने को बाध्य नहीं होना पड़ेगा। तब हर महीने उन्हें कच्छप गति से चलती हुई वेतनवृद्धि और खरगोशी चाल से चलती महँगाई में तालमेल बिठाते हुए भ्रष्ट होने के लिए मज़बूर नहीं होना पड़ेगा।
हर मर्ज़ का एक ही इलाज़- न रहेगा बाँस और न बाजेगी बाँसुरी। सारे सरकारी विभागों में शत-प्रतिशत आरक्षण समलैंगिकों और किन्नरों का। ऐसा करने में कुछ साल लगेंगे जब सारे परिवारविहीन लोग होंगे सरकारी संस्थाओं में तब दूर-दूर तक भ्रष्टाचार का नामोनिशान नहीं होगा। पुलिस, न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका कानून के अनुसार चलने प्रारम्भ हो जाएंगे और पूरे देश में समरसता आ जाएगी, जिसे लाने का झाँसा अब तक समाजवादी और कम्युनिस्ट देते रहे हैं और तब वह सपना पूरा हो सकेगा जिसे आज़ादी के परवानों ने अपने खून से सींचा था।
अभी कुछ साल पहले की बात है जब उत्तर प्रदेश में गोरखपुर की जनता ने एक शोध किया था। मेयर पद पर एक किन्नर को बिठा दिया गया था। तब यह अनुभव किया गया कि ऐसे लोग जिनका परिवार नहीं होता रिश्वतखोरी और कमीशनखोरी के चक्रव्यूह में फँसे बिना समाज की सेवा करते हुए देश को विकास की दिशा में आगे ले जा सकते हैं। तभी से मैने यह सोंचना प्रारम्भ कर दिया कि अगर भारत से भ्रष्टाचार रूपी कोढ़ का उपचार करना है तो एक ही तरीका है, सभी सरकारी विभागों में शत प्रतिशत आरक्षण समलैंगिकों और किन्नरों के लिए। वैसे तो यह कार्यक्रम लम्बा खिंच सकता है, लेकिन प्रयोग के तौर पर सरकारी विभागों के प्रमुखों और प्रभारी के पदों पर ऐसे अल्पसंख्यकों की नियुक्तियाँ कर शुरुआत तो की ही जा सकती है

-विनय ओझा














Monday, October 5, 2009

जनता बनाम पशु – एक व्यंग्य

भारतीय लोक तंत्र में कार्यपालिका और न्यायपालिका की समझ में थोड़ा फर्क है। न्यायपालिका बार बार अपने निर्णयों में कहती रहती है कि संविधान के अनुच्छेद 21 में जीवन के अधिकार का आशय पशुवत जीवन से नहीं है, अपितु मनुष्य के प्रतिष्ठा-पूर्ण जीवन का अधिकार है। जबकि कार्यपालिका की समझ कुछ अलग हट कर है। वह क्या है इसे खुल कर बताने की आवश्यकता नहीं है।

केन्द्र सरकार में एक मंत्री जी हैं, जो यथार्थवादी हैं। जब आम चुनाव चल रहे थे तब दूसरे-तीसरे दिन उनके लेख “टाइम्स ऑफ इन्डिया” में छपते थे,तब मुझे यही लगता था कि चुनाव बाद इस समाचार पत्र को टेक ओवर कर लेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उनके अनुसार हवाई जहाजों के ‘एकोनामी क्लास’ मे यात्रा करना भेड-बकरियों के साथ यात्रा करने के समतुल्य है, इसी लिए ‘एकोनामी क्लास’ को उन्होंने ‘कैटल-क्लास’ की संग्या दे डाली।वे यथार्थ-वादी हैं उन्हें पता है कि भारत में आम जनता के जीवन और पशुओं के जीवन में कोई विशेष अंतर नहीं है। जो पाँच सितारा होटलों में महीनों पार्टी के खर्च पर रहा हो और बिजनेस क्लास में हवाई यात्राओं का आनंद उठाने का आसक्त हो गया हो, उसे ‘एकोनामी क्लास’ ‘कैटल-क्लास’ लगेगा ही, और साधारण होटल का खाना पशुओं के स्तर का खाना लगेगा ही। परंतु सच्चाई यह है कि वह ठहरे एक यथार्थवादी लेखक और उन्हें राजनेता बने कुछ ही माह ही हुए हैं, अभी तक उन्होंने यह नहीं सीखा कि राजनीति में सोंचने के कुछ और बोलने के कुछ और ही विचार और स्वर होते हैं। यदि उन्हें उलट दिये जाँय तो फूलों की जगह जूतों की माला पहननी पड़ेगी। जैसे जनता भेड़ है, उसकी अपनी कोई सोंच और स्वतंत्र बुद्धि नहीं होती। उसे चारा दिखाकर भेड़-बकरियों की तरह कहीं भी और किसी भी दिशा में हाँका जा सकता है। उसे शराब, कम्बल और पैसे बाँट कर अपने दल को मत देने के लिए आकर्षित किया जा सकता है। फिर पाँच वर्ष तक उसे अंगूठा दिखा कर जोंक की तरह उसकी जन-कल्याणकारी योजनाओं का फंड चूसा जा सकता है। यदि यही विचार जनता के सम्मुख प्रकट कर दिए जाएं तो पिटाई सुनिश्चित है। जनता पिल पड़ेगी यह कहते हुए कि देखो साला जनता को भेड़ कह रहा है,जोंक की तरह जनता का खून चूसने की बात कह रहा है, पीटो साले को। फिर जनता शुरू। अभी पिछले आम चुनाव में तो राज-नेताओं पर जूते फेंकने की शुरुवात हो चुकी है,अगले आम चुनाव का क्या भविष्य है ज्योतिषी ही बता सकता है। इसी आशंका के चलते उसे ज़ेड कैटेगरी की सुरक्षा की आवश्यकता पड़ती है।क्योंकि जनता तो तैयार बैठी है,उन्हें भी पता है कि कैसे कैसे कर्म किए हैं हमने।
प्रतिष्ठा जनता की नहीं, उसकी सेवा करने की झूठी कसम खाने वाले जनसेवियों की ही होती है। आम आदमी को अचानक कहीं जाना है, रेल की शायिका में सीट नहीं मिली,जाना जरूरी है, सामान्य डिब्बे मे यात्रा कर ली। जब जरूरत पड़ी बस की यात्रा कर ली । ज्यादा मजबूरी आई, आटो-रिक्शा से यात्रा कर ली और 80 रूपए बनते थे 160 रूपए देने पड़े फिर भी उसकी प्रतिष्ठा नहीं घटती, किंतु जन-सेवी यदि बस में यात्रा कर लेगा तो उसकी प्रतिष्ठा घट जाएगी। आज तक मैंने किसी जन-सेवी को बस में यात्रा करते नहीं देखा। पता नहीं इस जीवन में ऐसा सुखदायी दृश्य देख सकूंगा कि नहीं, संदेह होता है । तभी तो वह खास आदमी है वरना फर्क ही क्या है आम आदमी और खास आदमी में। आदमी तो आदमी ही होता है।उसके भीतर के गुण नहीं, बल्कि उसके संसाधन ही उसे आम और खास बनाते हैं। आम आदमी कितना ही खास काम करे, उसकी कोई पूंछ नहीं होती, बल्कि इसके विपरीत खास आदमी का आम आदमी जैसा काम भी खास बना देता है। जैसे राहुल गांधी खास आदमी हैं, ऐसी बात नहीं कि उनको सुरखाब के पर लगे हुए हैं, उनकी खासियत यह है कि वे राजीव गांधी के बेटे हैं। राजीव गांधी की खासियत यह थी कि वह इन्दिरा गांधी के बेटे थे। उनकी खासियत यह थी कि वह नेहरू जी की बेटी थीं। नेहरू जी की खासियत यह थी कि वह गान्धी जी के खास लोगों में से थे, इस लिए देश के पहले प्रधान-मंत्री बने थे। क्योंकि कांग्रेस में गांधी जी की चलती थी, इसी लिए नेता जी सुभाष चन्द्र बोस को अध्यक्ष चुने जाने के बावज़ूद कांग्रेस की अध्यक्षता से त्यागपत्र देना पड़ा था। अब राहुल गांधी चूंकि खास आदमी हैं उनका हर काम खास बन जाता है। मीडिया वाले कैमरा लेकर उनके पीछे-पीछे भागते रहते हैं । राहुल गांधी रात भर कलावती( जो आम महिला है) के घर में रात भर रुके, उसका दुःख-दर्द महसूस किया। कलावती के साथ खाना खाया तो पता चला कि आम आदमी को किस स्तर का खाना नसीब होता है। आम आदमी के पास भी उनकी तरह स्वाद लेने को जीभ और भरने को पेट होता है, यह और बात है कि वह उनका उपयोग उस तरह नहीं कर पाता जितना कि खास आदमी कर लेता है। यह भी देखा कि कलावती के बच्चे किस स्तर की शिक्षा सरकारी स्कूलों से पा रहे हैं, जिनका स्तर उसी तरह न सुधारे जा सकने योग्य है जिस प्रकार किसी राजनेता का चरित्र । यह सब अनुभव लेने के बाद कुछ आर्थिक सहायता (भिक्षा) दे कर विदा हो लिये। कलावती के दुःख की कथा उन्होंने संसद में सुनाई जो तत्कालीन प्रधान मंत्री के विश्वास मत परीक्षण में सहानुभूति बटोरने के काम आई और मीडिया ने तेज़ी से खबर को लपका, जिससे कलावती आम महिला से खास महिला बन गयी। कलावती और भी खास बन जाती यदि उसे कांग्रेस से टिकट मिल जाता। किंतु राहुल गांधी का उद्देश्य उसे इतना खास बनाने का नहीं था, ऐसी गलती कांग्रेस पार्टी थोड़े न करेगी। अरे ऐसी गलती कोई भी राजनीतिक पार्टी नहीं करेगी। यही तो राजनीति का सिद्धांत है। किसी कमज़ोर को इतना ताकतवर मत बनने दो कि वह तुम्हारी छाती पर चढ़ कर हिसाब किताब मांगने लगे। ऐसे ही एक दिन राहुल गांधी अचानक राजधानी से लापता हो गए, पता चला कहीं किसी गाँव में आम मजदूरों की तरह तसला सिर पर रख कर मिट्टी ढो रहे हैं और उनके पीछे-पीछे मीडिया वाले कैमरा लेकर उनके श्रमदान का लाइव टेलीकास्ट कर उनके गांधी-वादी होने की सार्वजनिक घोषणा कर रहे हैं। क्योंकि खास आदमी आम आदमी जैसा काम कर रहा है। कितना दुर्लभ होता है भारत में ऐसा दृश्य।

आज़ादी के बाद से सभी राज-नेताओं ने एक मुहिम चलाई– ‘प्रॉस्पेरिटी ड्राइव’। गरीबी हटाओ का दिखावटी नारा देकर सभी ने अपनी गरीबी हटा ली। जनता जस की तस। अभी तक जनता की गरीबी हटाने की बारी ही नहीं आई । जिसे जनता गरीबी हटाने और समृद्धि लाने वाली सरकार मानती रही वह अपने को समृद्ध बनाने की मुहिम या ‘प्रॉस्पेरिटी ड्राइव’ चलाती रही। अब जहाँ आम आदमी सूखा,आर्थिक मन्दी और कमर-तोड़ महँगाई, बेरोज़गारी से जूझ रहा है, वहीं राजनेताओं के ऐश्वर्य और सुविधाभोगी जीवन कांग्रेस के भीतर अपराध बोध को जन्म दे रहा है, जिस पूर्वाग्रह के मानसिक उपचार हेतु वह अब ‘आँस्टेरिटी ड्राइव’ चला रही है जिससे उसे जनता का असली शुभ-चिंतक होने का प्रमाणपत्र समझा जाए । किंतु एक यथार्थ-वादी लेखक जो कांग्रेस के ही हैं और मंत्री भी हैं सरकारी कार्य के लिंए हवाई जहाजों में ‘बिजनेस क्लास’ के लिए अधिकृत होते हुए भी ‘आँस्टेरिटी ड्राइव’ के तहत ‘एकोनोमी क्लास’ में यात्रा करने की खिल्ली उड़ाते हैं और उसे कैटल क्लास जिसका आशय पशुओं का दर्ज़ा से है, कहते हैं। यद्यपि उनके इस बयान की हर तरफ बड़ी आलोचना हुई लेकिन मैं उसका अति यथार्थवादी होने के कारण समर्थन करता हूं। भारत की जनता को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है- एक ‘इलाइट क्लास’ और दूसरा ‘कैटल क्लास’। राजनेता, ब्यूरोक्रैट, उद्योगपति, व्यापारी सभी इलाइट क्लास में आते हैं, बाकी सारे लोग ‘कैटल क्लास’ में रखे जा सकते हैं। ऐसे लोगों का जीवन,रहन-सहन,खान-पान,शिक्षा-दीक्षा,यातायात के साधन से लेकर होटल,चिकित्सालय,सुरक्षा व्यवस्था अपने अपने क्लास के हिसाब से रहता है।

अभी कुछ ही दिनों पहले की दिल्ली की एक घटना है। एक 14 वर्षीय बालिका को उसके पड़ोसी ने उसका अपहरण कर लिया। उसके परिवार वालों ने प्राथमिकी दर्ज़ कराने के लिए थाने पर सम्पर्क किया और अपहरण का मुकद्मा कायम करने का बार-बार अनुरोध किया।सम्भवतः अनुरोध के तरीके में कोई कमी रही होगी। कभी–कभी मुकद्मा लिखाने वाले से मुकद्मा न लिखने देने वाला ज्यादा प्रभावशाली सिद्ध होता है।क्योंकि इस देश में मुक्द्मे का अपेक्षित धारा में, अपेक्षित व्यक्ति के विरुद्ध कायम कराया जाना न्याय की वह लड़ाई है, जो न्यायालय से बाहर थाने पर लड़ी जाती है। थानेदार ने अपहरण का मुकद्मा लिखने से मना कर दिया और यह कहा कि मुकद्मा गुमशुदगी का ही दर्ज़ हो सकता है। छः माह तक बहस चलती रही और मुकद्मा गुमशुदगी का ही दर्ज़ हो पाया । लड़की के पिता ने जब हार मान कर उच्च न्यायालय में याचिका दायर की तो उसके हस्तक्षेप पर अपहरण का मुकद्मा कायम हुआ और खोज बीन शुरु हुई। परिणामस्वरूप लड़की लुधियाना से बरामद हुई,तब पता चला कि वह आठ माह की गर्भिणी है। वैसे तो दिल्ली पुलिस की पेट्रोलिंग कार पर लाल और बड़े अक्षरों में लिखा रहता है- “हम बड़ी तेज़ी से काम करते हैं”, बिल्कुल सच, तभी तो उसने छः माह में प्राथमिकी दर्ज़ कर आठ माह में उस 14 वर्षीय बालिका को बरामद कर सक्रियता दिखाई जिसका अपहरण करने वाले का नाम, पता और हुलिया सब मालूम था। अरे यू.पी.पुलिस होती तो बरामद करते करते बच्ची 3-4 बच्चों की माँ बन चुकी होती। उसके पिता जी कहते बेटी, विधाता ने तुम्हारे भाग्य में शायद यही लिखा था, अब होनी को कौन टाल सकता है, अब कौन तुम्हारे साथ विवाह करेगा इसी अपहर्ता को अपना जीवन साथी मान कर शेष जीवन बिताओ। एक चौदह वर्ष की बालिका का पूरा जीवन नष्ट हो गया किंतु उत्तर-दायित्व किसी का नहीं। उस परिवार की कोई प्रतिष्ठा नहीं है क्यों कि वह सामान्य आदमी यानि कैटल क्लास का है । वहीं उसके स्थान पर कोई धनी या राजनैतिक पृष्ठ-भूमि का व्यक्ति होता तो पुलिस विभाग वाले, सारे मीडिया वाले और टी. वी. चैनल आसमान सिर पर उठा लेते और स्थिति यहाँ तक नहीं पहुँचती ।

-विनय कुमार ओझा

Friday, September 25, 2009

“राम तेरी गंगा मैली हो गई” - एक व्यंग्य

राम तेरी गंगा मैली हो गई’ फिल्म देखी होगी। यह फिल्म प्रधान मंत्री ने भी देखी। प्रधान मंत्री जी भले आदमी हैं। उन्होंने मंत्रियों की एक बैठक बुलाई और यह चर्चा की कि गंगा हमारी माता के समान है, और मैली हो गई हैं लिहाज़ा उनकी सफाई हमारी जिम्मेदारी है और इस सन्दर्भ में क्या किया जा सकता है? गैर सरकारी संगठनों और परियोजना विशेषग्यों से विचार-विमर्श करने पर पता चला कि कई करोड़ रूपए खर्च होंगे फिर भी उसके स्वच्छ होने की कोई गारंटी नहीं है। अब देखिए न दिल्ली में यमुना की सफाई का भगीरथ प्रयास किया हमने, परिणाम यह हुआ कि यमुना जी ही साफ हो गयीं। तो एक ने कहा कि गंगा जी साफ नहीं हो सकती हैं। उन्होंने पूँछा- ऐसा क्यों? उत्तर आया-साहब फिल्म का तात्पर्य है कि लोग गन्दे हो गए हैं,राजनीति गन्दी हो गई है। समाज गन्दा हो गया है। सारा सरकारी तंत्र भ्रष्टाचार के कोढ़ से अपंग हो गया है। जब तक ये लोग अपना पाप धोने के लिए गंगा स्नान करने प्रति वर्ष जाते रहेंगे, गंगा मैली ही रहेगी। उन्होंने पुनः प्रश्न किया-फिर क्या किया जा सकता है? उत्तर आया-सरकार गंगा माता से पहले पूरे सरकारी तंत्र की सफाई करनी पड़ेगी। सबके भीतर से भ्रष्टाचार के वायरस को निकालना होगा जो कोढ़ बन कर फूट रहा है। प्रधान मंत्री जी जेब से सूआ निकाल कार सिर खुजाते हुए कहते हैं कि फिर क्या किया जा सकता है? किसी ने कहा कि सरकारी तंत्र की सफाई तो सम्भव नहीं है क्यों कि राजनेताओं में इस बात पर आम सहमति बननी सम्भव नहीं है। चलिए गंगा की ही सफाई करते हैं। प्रश्न आया करोड़ों रूपए का खर्च कहाँ से आएगा? किसी ने कहा स्विस बैंक से सारा पैसा निकाल कर गंगा माता की सफाई में लगा देते हैं। एक स्वर आया कि हाँ सरकार अच्छा विचार है। दो नंबर का पैसा एक नंबर के काम में लग जएगा। दिव्य नदी का पावन जल सवच्छ हो जाएगा और फिर संतों द्वारा टी.वी. चैनलों पर प्रचार करा दिया जाएगा कि कांग्रेस ने गंगा माता की सफाई कराई है, जो आज तक कोई दल नहीं कर पाया । इस प्रकार लोगों के मन में कांग्रेस के प्रति अगाध श्रद्धा उमड़ेगी और हम फिर चुनाव जीत कर सत्ता में आ जाएंगे और फिर हमारा सरकारी तंत्र जो पैसा कमाएगा स्विस बैंक में वापस जमा कर देंगे। किसी ने कहा हाँ सरकार ‘रीकरिंग डिपोजिट’ खोला जा सकता है । तभी पीछे से एक स्वर आया कि स्विस बैंक में क्या तुम्हारे बाप का पैसा है। सरदार जी ने फिर सिर खुजाते होए बोला फिर वापस चला आएगा ना । पीछे से एक स्वर आया-वह कैसे? वर्तमान चुनाव आयुक्त की कांग्रेस पर पूरी निष्ठा है। चुनाव आयुक्त की इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों पर पूरी निष्ठा है,क्यों कि सॉफ्ट- वेयर उन्ही के डलवाए हुए हैं । जनता वोट के लिए चाहे कोई बटन दबाए पर गिनती कांग्रेस के ही झोली में जाएगी,किंतु कुछ भी हो पैसा स्विस बैंक से नहीं निकलेगा। मीडिया को पता चल गया तो डंका बज जाएगा कि पैसा किस पार्टी का है। कई दसकों से चले आ रहे रहस्य का पटाक्षेप हो जाएगा कि स्विस बैंकों में खाते किसी उद्योग पति के हैं या किसी समर्पित जन-सेवी के ।
तब तक एक वकील साहब का उर्वर मस्तिष्क काम कर गया। उन्होंने कहा कि हर्र लगे ना फिटकिरी रंग भी चोखा होय। गंगा का मैलापन राष्ट्रीय स्तर का है जिसे साफ नहीं किया जा सकता है। दोनों में एक समानता है इस राष्ट्र की राजनीति को जिस तरह साफ नहीं किया जा सकता है, उसी तरह गंगा का मैलापन भी साफ नहीं किया जा सकता है, क्योंकि वही मन के मैले लोग गंगा में फिर डुबकी लगाएंगे और फिर गंगा मैली की मैली। ऐसे में यदि साफ सुथरा व्यक्ति भी गंगा स्नान करेगा तो वह भी मैला हो जाएगा।इस लिए गंगा का मैलापन एक राष्ट्रीय समस्या बन गई है।उसमें स्नान करके स्वच्छ होने के बज़ाय पूरा देश गन्दा हो गया है। इस लिए इसे राष्ट्रीय नदी का दर्जा दे देना चाहिए। इससे अगले आम चुनाव में हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण कांग्रेस के पक्ष में हो जाएगा और यह चुनाव परिणाम भी हमारे पक्ष में हो जाएगा । तभी एक अधिसूचना जारी की गई कि गंगा एक राष्ट्रीय नदी हैं। परिणाम स्वरूप जो हाल राष्ट्रीय पशु चीता, राष्ट्रीय पक्षी मोर का है वही हाल राष्ट्रीय नदी गंगा माता का होने वाला है।

Monday, September 14, 2009

जागो-जागो बचालो वतन साथियों

जागो जागो बचालो वतन साथियों,
लुटता माली के हाथों चमन सथियों ।

जिनके पुरखों ने सींचा लहू से चमन,
जिनके हक के लिए बाँधा सिर पर कफन;
उनकी संतानें यूँ धन की प्यासी हुईं-
कर रहीं हैं गबन पर गबन सथियों॥

त्याग बलिदान अब तो किताबों में है,
हर कोई मस्त अपने हिसाबों में है ;
हम न सुधरेंगे ये व्रत है हमने लिया-
पर सुधारें सभी आचरन साथियों ॥

कृष्ण फिर से धरा पर उतर आइये,
हाथ अर्जुन के गांडीव पकड़ाइये;
सारे जनसेवी बनकर दुशाषन यहाँ-
खींचते भारत माँ का बसन साथियों ॥


- विनय कुमार ओझा ‘स्नेहिल’

Wednesday, September 9, 2009

सच का सामना



कुछ दिनों से टेलीविजन पर एक धारावाहिक दिखाया जा रहा है, जिसका नाम है ‘सच का सामना’। जिस प्रकार भारतीय संविधान में राजनेताओं के योग्यता की कोई लक्षमण रेखा नहीं निर्धारित की गई है उसी प्रकार टी.वी. चैनलों पर दिखाए जाने वाले धारावाहिकों के स्तर की कोई सीमा नहीं होती, वे किसी भी स्तर के हो सकते हैं, उसी स्तर का यह भी धारावाहिक है। किंतु जैसा कि बाजार में बिकाऊँ होने की शर्त विवादित होना है, न कि उच्च स्तरीय होना, उसी तरह यह भी धारावाहिक विवाद का केन्द्रविन्दु बनाया गया, जिसकी गूँज संसद तक पहुँची और जिसको सभी टी.वी. चैनलों ने तेज़ी से लपका।संसद में बहस छिड़ गई कि इस पर प्रतिबन्ध लगाना चाहिए।क्यों कि सच का सामना करने से सबसे ज्यादा अगर कोई घबराता है तो राजनेता । जिस दिन सरकार बदलती है उसी दिन विपक्ष को एक साथ ढेरों सच का सामना करने की आशंका सताती है। सत्ता पक्ष के पिटारे से कई ऐसे जाँच के विषय निकलते हैं, जिससे न केवल सत्ता का संतुलन बनाने में सहायता मिलती है बल्कि वे समर्थन जुटाने के भी काम आते हैं । यह आशंका जताई गई कि यदि किसी दिन राजीव खंडेलवाल ने मंत्री या सत्ता पक्ष के राजनेता को सच का सामना करने के लिए तलब कर लिया तो हाथ पाँव फूल जाएंगे । प्रश्न कुछ इस तरह के हो सकते हैं, जैसे कि – स्विस बैंक में किसका पैसा जमा है, और किन लोगों का खाता है?वे किस उद्योग से सम्बन्ध रखते हैं या किसी समर्पित जनसेवी के हैं ? उनके नाम आपको पता हैं किंतु आप बताना नहीं चाह्ते हैं आदि आदि--- उसके बाद पोलीग्राफ टेस्ट के लिए झूठ पकड़ने वाली मशीन के पास लाया जाएगा और मशीन बताएगी कि नेता जी सच बोल रहे हैं या झूठ। किंतु जैसा कि कैबिनेट में एक वकील साहब हैं, जो ऐसे अवसरों पर सलाहकार की भूमिका निभाते हैं या यूँ कहें कि हर सरकार में ऐसे लोगों की आवश्यकता का अनुभव की जा रही है जो सम्विधान की अपने सुविधानुसार व्याख्या कर सकें, उनका दिमाग बहुत तेज़ी से काम करता है। उन्होंने कहा कि डरने की कोई बात नहीं है, स्थिति नियंत्रण में है। टी.वी. चैनलों के पास न्यायालय की शक्ति थोड़े ही है, जो गिरफ्तारी वारंट निकालेंगे और आरोप का सामना करने जाना पड़ेगा। वैसे भी राजनेता के गिरफ्तारी वारंट जारी होने के बावज़ूद उसे न्यायालय में आरोप का सामना करने के लिए प्रस्तुत करना कठिन कार्य होता है तो राजीव खंडेलवाल किस खेत की मूली हैं। वैसे तो हमारे निजी सूत्रो ने इस कार्यक्रम के बारे में कुछ शर्तें तय कर रखी हैं । जैसे कि इस कार्यक्रम में किसी सत्ता पक्ष के राज नेता को सच का सामना करने के लिए नहीं बुलाया जाएगा । यदि गलती से उसे टी वी चैनल पर बुला ही लिया गया है तो उसे एकांत में समझा दिया जायेगा कि सच का सामना न करना दोनों के हित में है। यदि इस पर भी वह नहीं समझता है और लोकतंत्र का सजग प्रहरी होने का दम्भ रखता है, तो उसे कार्यक्रम दिखाने के पहले एक स्पष्टीकरण या माफीनामा दिखाना होगा कि इस घटना का दूर-दूर तक सत्य से कोई सम्बन्ध नहीं है। साथ ही यह भी स्पष्टीकरण देना होगा कि झूठ पकड़ने वाली मशीन नेताओं पर काम नही करती है, इस लिए यह निर्णायक नहीं है। जो नेता कहेगा वही सच माना जाएगा न कि मशीन। क्योंकि मशीन में गड़बड़ी की सम्भावना भी हो सकती है, यह और बात है कि डी.डी.ए. के फ्लैटों के आबंटन के समय कम्प्यूटरीकृत लॉटरी और इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनें निष्पक्षता पूर्वक सन्देह से परे कार्य करती हैं ।
अगली शर्त यह है कि इस कार्यक्रम में सार्वजनिक महत्व के प्रश्नों को नहीं पूँछा जा सकता,क्योंकि जबसे हमें स्वतंत्रता मिली है तब से यह भी स्वतंत्रता मिली है कि किसी राजनेता से सार्वजनिक महत्व के प्रश्न का उत्तर देना या न देना उसके निर्भर है । क्योंकि इससे उसके चरित्र पर आक्षेप आ सकता है और मानहानि का भी मुकद्मा दायर कर सकता है क्यों कि वह न्याय का आर्थिक भार उठाने मे भी सक्षम है। किंतु अन्य लोगों से चरित्र पर आक्षेप लगाने वाले प्रश्न भी पूंछे जा सकते हैं। जैसे राजीव खंडेलवाल किसी राजनेता से यह प्रश्न नहीं पूँछ सकते कि आप ने अब तक कोई घपला किया है या नहीं ?सच बोल रहे हैं कि झूठ इसका निर्णय पोलीग्राफ टेस्ट करेगा । जैसे कि यह पूँछा जा सकता है कि “शादी से पहले आप ने किसी स्त्री या पुरुष से शारीरिक सम्बन्ध बनाए हैं या नहीं?” “शादी के बाद किसी स्त्री या पुरुष से शारीरिक सम्पर्क बनाया है या नहीं?” “यदि बनाया भी है तो उंगली पर गिना जा सकता है या नहीं?” यदि हाँ बोलेंगे तो पूरा परिवार सुन और देख रहा है, प्रतिष्ठा और पत्नी दोनों खोने की आशंका है और वह सच बोल रहा है या झूठ इसका निर्णय झूठ पकड़ने वाली मशीन करेगी, जिसे अंतिम माना जाएगा। जैसे “‘गे राइट्स’ के बारे में आप का क्या ख्याल है?” “क्या आप ने पुरुष होते हुए किसी पुरुष से शारीरिक सम्बन्ध बनाए हैं?” “इस आर्थिक मन्दी के दौर में जबकि हर व्यक्ति महंगाई से त्राहि त्राहि कर रहा है,सोंच कर बताइए यदि आपके विवाह के पूर्व धारा 377 समाप्त कर दी जाती, तो क्या आप स्त्री से विवाह करके बाल बच्चों के फिजूल के खर्चीली झंझट के चक्रव्यूह में फँसना पसन्द करते या किसी ‘गे’ से विवाह कर सभी खर्चों पर पूर्ण विराम लगा देते?” इस प्रश्न पर आपको दो लाइफलाइन दी जाएगी, जिससे आप अपने शुभ चिंतकों से विचार-विमर्श कर सकते हैं। किंतु घोर परम्परावादी माता पिता से फोन पर विचार मत माँगिएगा वर्ना आपकी शारीरिक सुरक्षा और पैतृक सम्पत्ति को खतरा भी उत्पन्न हो सकता है
राजीव खंडेलवाल को समझा दिया गया है कि प्रश्न किस स्तर के होने चाहिए। उनसे यह भी कह दिया गया है यदि समझ न आये तो उदाहरण के रूप में सलमान खान के धारावाहिक ‘दस का दम’ से कुछ प्रश्न लिए जा सकते हैं, जैसे कि-“कितने प्रतिशत भारतीयों को घर वाली से बाहर वाली ज्यादा आकर्षित करती है?” “कितने प्रतिशत भारतीय विवाहित होने के बावज़ूद घर के बाहर अपनी प्यास बुझाते हैं?” “कितने प्रतिशत भारतीय ऑफिस जाने से पहले अपनी पत्नी को पार्टिंग किस देते हैं?” “कितने प्रतिशत भारतीय अपने पत्नी की पसंद का धारावाहिक देखते हैं?” आदि आदि................

‘हिन्दी का श्राद्ध’

मैं अतिथि कक्ष में सोफे पर बैठ कर कुछ लिख रहा था कि तभी दरवाज़े पर कॉल बेल की आवाज़ सुनाई दी दरवाज़ा खोला तो देखा कि इष्टदेव जी जो मेरे मित्र हैं और जिनका सिर घुटा हुआ है, दरवाज़े पर खड़े हैं। मैने प्रश्न किया कि क्या हुआ? सब कुशल है न? सिर क्यों घुटा रखा है? बोले पितृ-पक्ष है न?पिता जी का श्राद्ध किया है सो सिर घुटाना पड़ा। मैने पूँछा यह श्राद्ध क्या है?उन्होंने कहा कि यह शास्त्रोक्त परम्परा है कि जिनके पिताजी स्वर्ग-वासी हो चुके हैं, उन्हें भूख-प्यास तो लगती ही होगी,लिहाज़ा वर्ष में एक बार एक पखवाड़े तक उन्हें पिंड के रूप में भोजन और तर्पण के रूप में पानी दिया जाता है और इस पखवाड़े को पितृ-पक्ष कहते हैं।
अगले दिन मैं भी नाई की दुकान पर जाकर सिर घुटा दिया। अगले दिन जब इष्टदेव जी से मुलाकात हुई तो उन्होने आश्चर्य जनक दृष्टि से पूछा कि अरे यह क्या? आप के पिताजी तो अभी जीवित हैं तो फिर आपने सिर क्यों घुटा लिया?हमने कहा कि पिताजी तो अभी जीवित हैं किंतु हम सब की एक माता जी रही हैं, जिन्हें पूरे राष्ट्र की माता होने का गौरव प्राप्त था,परलोक सिधार चुकी हैं, मैं सोंचता हूँ कि पितृ-पक्ष में उन्हें भी पिंड–दान और तर्पण करना चाहिए सो उन पर श्रद्धा प्रदर्शित करने के लिए हिन्दी पखवाड़ा मनाऊंगा। हिन्दी पखवाड़ा पितृ-पक्ष में मनाया जाता है, जिसका उद्देश्य राष्ट्रभाषा हिन्दी का श्राद्ध करना और उसकी मृत-आत्मा को शांति प्रदान करने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करना। किंतु जिस प्रकार इसे मनाया जाता है उस पर मुझे आपत्ति है। प्रति वर्ष सभी सरकारें एक सर्कुलर ज़ारी करती हैं कि देश के सभी सरकारी कार्यालयों में हिन्दी पखवाड़ा मनाया जाएगा और हिन्दी में काम-काज को दिखावटी रूप से प्रोत्साहित किया जाएगा, यह और बात है कि हिन्दी पढ़ने,लिखने, और बोलने वाला वर्ष भर हीन भावना से ग्रस्त रहता है,मात्र हिन्दी पखवाड़े में उसका स्वाभिमान जागता है और फिर वर्ष भर के लिए कुंभकरणीय निद्रा में सो जाता है। मेरा मानना है कि हिन्दी पखवाड़े में साहित्यिक कार्यक्रमों के आयोजन और पुरष्कार वितरण के बज़ाय दो मिनट का मौन रखना अधिक लाभप्रद रहेगा,क्योंकि जहाँ दुनिया एक तरफ बाज़ार की आर्थिक मंदी और उससे उपजी महँगाई से जूझ रही है वहीं सरकार झूठ-मूठ में पानी की तरह पुरष्कारों पर पैसा बहा रही है,ऐसे में दो मिनट का मौन ज्यादा लाभप्रद सिद्ध होगा, साथ ही देश की अर्थ–व्यवस्था पर अतिरिक्त भार भी नहीं पड़ेगा और घंटों के उबाऊ कार्य-क्रमों से मुक्ति भी प्राप्त हो जाएगी।उन्होंने कहा श्राद्ध तो पितरों का किया जाता है न कि माताओं का अन्यथा इस पक्ष का नाम मातृ-पक्ष नहीं रखा होता? मैने कहा जो भी हो प्राचीन भारत में पुरुषों को स्त्रियों से ज्यादा अधिकार दिया गया था, तभी तो शास्त्र कहते हैं कि “यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवताः” अर्थात जहाँ पर स्त्रियों की पूजा होती है वहीं पर देवताओ का वास होता है। मैने प्रश्न किया कि स्त्रियों का श्राद्ध न करना उनके साथ भेद-भाव नहीं है ?क्या उनकी मृत आत्मा को भूख-प्यास नहीं लगती होगी? मैने कहा-आज जमाना बदल रहा है।आज की स्त्रियाँ पुरुषों से चार कदम आगे-आगे भाग रही हैं,पुरुष उनके मुकाबले बहुत पीछे छूट गए हैं। आज सरकार संसद से लेकर ग्राम पंचायत तक आरक्षण की व्यवस्था कर उनका उत्थान करने पर प्रतिबद्ध है और आप किस दुनिया में जी रहे हैं।मैने तो सोंच लिया है कि केन्द्र सरकार को एक पत्र लिखूंगा जिसमें यह सुझाव होगा कि सभी सरकारी कार्यालयों के लिए एक सरकुलर जारी किया जाय कि पितृ-पक्ष में मनाए जाने वाले हिन्दी पखवाड़े में पन्द्रहों दिन सभी हिन्दी प्रेमियों को सहित्यिक आयोजनों में श्वेत वस्त्र धारण करके यदि उनके पास हो तो श्वेत वर्णीय कुर्ता-धोती में आना होगा और नित्य दो मिंनट का मौन धारण करना होगा। साथ ही यह भी निर्देश होगा कि आज के इस आर्थिक मन्दी और महँगाई के दौर में साहित्यिक आयोजनों में मृत भाषा के कवियों और लेखकों पर पुरष्कार के रूप में पैसा बहाने की आवश्यकता नहीं है, ऐसा करना सरकारी अनुदानों का दुरुपयोग माना जाएगा और दोषी पाए जाने वालों के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही भी की जा सकती है । इसके बज़ाय सरकारी कार्यालयों में राष्ट्र-भाषा हिन्दी की मृत आत्मा की शांति के लिए दो मिनट का मौन रखने का प्रावधान किया जाना चाहिए और हिन्दी दिवस को राष्ट्रीय शोक दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिए और इस दिन राष्ट्रीय ध्वज को झुका दिया जाना चाहिए। इस दिन सरकारी कार्यालयों में राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया जाना चाहिए, इसी से हिन्दी की मृत आत्मा को शांति तथा मुक्ति पाप्त होगी।

Monday, September 7, 2009

मुफ्त और जबरदस्ती शिक्षा-

अभी हाल में केन्द्र सरकार ने एक विधेयक पारित किया है, जिसका नाम है मुफ्त और जबर्दस्ती शिक्षा अधिनियम ( फ्री एंड कम्पल्सरी एजुकेशन ऍक्ट)। यह एक केन्द्रीय मंत्री जो कि पेशे से वकील हैं, के उर्वर मस्तिष्क की उपज है । जैसा कि वकीलों का मस्तिष्क बहुत उर्वर होता है और मुवक्किलों के फायदे की लगातार फसलें काटते रहने के बावजूद भी जिसकी उर्वरता घटने की जगह दिन दूनी रात चौगुनी दर से बढ़ती रहती है । जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, ‘फ्री’ का तात्पर्य है- मुफ्त और ‘कमपल्सरी’ का तात्पर्य है-जबर्दस्ती। अब यह केन्द्र सरकार को लगने लगा है कि जनता को निःशुल्क शिक्षा देना सरकार की सम्बैधानिक जिम्मेदारी रही है, जिसे वह अब तक औपचारिक रूप से उसी तरह निभाती रही है, जिस तरह सरकारी कर्मचारी आय कर की जिम्मेदारी बेचारगी से निभाता है। उसे वह इस तरह सजा संवार कर प्रस्तुत करना चाहती है जिससे यह प्रतीत हो कि यह एक ऐसी इकलौती सरकार है, जिसने शिक्षा के महत्व को समझा है ।
आज सरकारी विद्यालयों की दशा यह चीख चीख कर बता रही है कि सरकार उनका कितना ध्यान रखती है । कहीं विद्यालय हैं, तो भवन नहीं,कहीं बच्चे हैं, तो अध्यापक नहीं, कहीं अध्यापक हैं, तो बच्चे नहीं और कहीं किताबें नहीं पहुँचीं। कहीं बागीचे में कक्षाएं चल रहीं हैं, कहीं जाड़े की गुनगुनी धूप में कक्षाएं चल रही हैं। कहीं अध्यापक हैं तो सरकार के पास उन्हें देने के लिए पैसा नहीं है। वैसे जब से नीतीश जी ने सत्ता सम्भाली है तब से अध्यापकों के वेतन समय से मिल जा रहे हैं। जब लालू जी और राबड़ी जी की सरकार थी तो यह मान कर चला जाता था कि ये सरकारी विद्यालय उस भारत के हैं जहाँ कभी गुरुकुल शिक्षा प्रणाली थी।गुरु जी के राशन पानी की जिम्मेदारी शिष्यों के कन्धों पर होती है जिसे वे भिक्षाटन से पूरी कर सकते हैं । आज के मास्टर साहब तो काश्तकार परिवार से हैं लिहाजा अपनी रोटी दाल का जुगाड़ खेती किसानी से बिना भिक्षाटन के भी पूरी कर सकते हैं ।

बिना पैसे के मिली चीज़ की गुणवत्ता की कोई गारंटी नहीं होती ।उसी तरह ज़बरदस्ती कराए गए किसी काम के गुणवत्ता की भी कोई गारंटी नहीं होती है। जिस प्रकार से प्रेशर कुकर की खरीद के समय फ्री मिले इलेक्ट्रिक प्रेस की कोई गारंटी नहीं, उसी तरह सरकार द्वारा फ्री में दी जाने वाली शिक्षा की गुणवत्त्ता की अपेक्षा करना मूर्खता है। दर असल सरकार के साथ ज़बर्दस्ती की जा रही है जो उसे वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुसार शिक्षकों को वेतनमान देना पड़ रहा है और पूरे देश के शिक्षकों और विद्यालयों के स्टाफ को वेतन देना पड़ रहा है। अगर यह उद्योग की परिभाषा में आता तो सरकार इसे सिक इन्डस्ट्री घोषित कर प्राइवेट सेक्टर में देकर पल्ला झाड़ लेती
किंतु सम्विधान है कि उसे इस आर्थिक मन्दी के दौर में भी जबर्दस्ती आर्थिक बोझ उठाना पड़ रहा है, इसी लिए अधिनियम में कम्पल्सरी शब्द का प्रयोग किया गया है।
सरकारी विद्यालयों में शिक्षा का स्तर तब से गिरना प्रारम्भ हुआ है, जबसे सरकारी अनुदान और सुविधाएं वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुसार देना शुरु हुआ है। इस माइने में लालू जी और राबड़ी जी की सोंच का लोहा मानना चाहिए। उनकी सोंच के अनुसार जब हमारे देश में गुरुकुल शिक्षा प्रणाली थी और शिष्य भीख माँग कर न केवल अपना और गुरु जी के परिवार का भी पेट भरते थे, बल्कि पढ़ लिख कर प्रकांड विद्वान भी बनते थे, तब क्या राजा महाराजा उन्हें अनुदान देते थे? अरे भाई यदि उन्हें अनुदान मिलता तो क्या प्रत्येक शिष्य गली-गली घर-घर भिक्षाम देहि,भिक्षाम देहि की आवाज थोड़ी लगाता । ज़ो शिक्षा भिक्षाटन का अन्न खाकर द्रोणाचार्य,शंकराचार्य और राम कृष्ण ने अपने शिष्यों को दे दी और कालीदास,तुलसीदास,सूरदास,कबीर दास और नानक जैसे विद्वान दे दिए, वह शिक्षा छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुसार वेतन पाने वाले क्यों नहीं दे पा रहे हैं। अरे सबका दिमाग खराब हो गया है, इसी प्रेरणा से लालू जी और राबड़ी जी के शासन काल में अध्यापकों का वेतन रोक दिया जाता था, वरना क्या सरकार के पास पैसे की कमी थी ? राजनेताओं के शान और रईसी में तो कोई कमी नहीं आई थी ।

इन सब के बावजूद् भी आज आम आदमी को सरकारी विद्यालय में अपने बच्चों को भेजना एक मजबूरी है जबकि वहाँ अच्छी शिक्षा की कोई सम्भावना नहीं है। वहीं इन स्कूलों में पढाना शिक्षको की मजबूरी है चाहे बच्चे पहुँचे या न पहुँचें। अब तो सरकार बच्चों को रिझाने के लिए दोपहर का भोजन भी दे रही है जिससे गली मोहल्ले के खाली बच्चे खाने की लालच में स्कूल पहुँच ही जाते हैं लेकिन उनकी शिक्षा का स्तर वही मुफ्त वाला ही है। एक और सुविधा हो गयी है कि एक हज़ार का खाना बाँट कर दो हज़ार का बिल भेज दिया जाता है और कागज में सरकार की योजना भी चलती है और हेड-मास्टर की ऊपरी आमदनी भी। लेकिन एक खास चीज़ जो नदारद है वह है सुशिक्षा । जो न तो मिल पा रही है और न जिसके मिलने की उम्मीद ही है ।

Monday, August 24, 2009

धन्य धन्य यह लोक तंत्र

धन्य धन्य यह लोक तंत्र-
भारत का लोक तंत्र दुनिया का बड़ा लोक तंत्र है। केवल भौगोलिक दृष्टि से ही नहीं, सैद्धांतिक दृष्टि से भी। यहाँ का लोक तंत्र कुछ मूल भूत सिद्धान्तों पर चलता है। पहला यह कि यहाँ जन प्रतिनिधि बनने के लिए यदि कोई योग्यता निर्धारित है तो यह कि वह व्यक्ति पागल या दिवालिया न हो। ऐसे में एक दुर्घटना हो सकती है कि कोई व्यक्ति चुनाव के समय ठीक ठाक हो और चुन कर संसद में पहुँच जाए,यहाँ तक तो गनीमत है, किंतु यदि उसके बाद पागल हो जाये, तो है कोई माई का लाल जो उसे अयोग्य सिद्ध कर दे।
दूसरी बात यह कि भारतीय राजनीति में कुछ तथ्य स्वयंसिद्ध होते हैं,उन्हें किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। जैसे राज-नेताओं की सम्विधान के प्रति निष्ठा स्वयंसिद्ध होती है,जनता के प्रति उनकी निष्ठा भी स्वतः सिद्ध होती है। चाहे बाढ़-राहत कोष का पैसा हो,चाहे पशुओं के चारे का पैसा हो,चाहे भूकम्प-राहत कोष का पैसा हो, सारा पैसा जनता की सेवा के लिए ही होता है, जिस पर जनता से पहले जन सेवियों का पहला अधिकार होता है; या यह कहें कि इस देश के सारे संसाधनों पर जनता से पहले जन सेवियों का प्राथमिक अधिकार होता है। जैसे किसी सरकारी अस्पताल में आम आदमी जो स्वस्थ है, चाहे लम्बी कतार में लग कर अस्वस्थ हो जाए, न केवल दिन भर की रोज़ी रोटी गवाँ देता है फिर भी वांछित दवा नहीं पा सकता, वहीं किसी मंत्री या राज नेता को उपचार करने के लिए दस-पाँच डाक्टरों की टीम बन जाती है और वह सारी सुविधायें सुलभ हो जाती हैं जिन तक आम आदमी की पहुँच मुश्किल होती है । जैसे जब भी किसी आतंकी हमले की आशंका होती है, तो सबसे पहले राज नेताओं की सुरक्षा बढ़ाई जाती है, क्योंकि सुरक्षा बलों पर पहला अधिकार नेताओं का होता है।
जब कभी किसी मंत्री जी का कफिला किसी रास्ते से जाने वाला होता है तो चरो तरफ से उसकी नाकेबन्दी इस तरह से कर दी जाती है कि आम आदमी का आना जाना ही दूभर हो जाता है । कभी कभी तो ऐसा होता है कि हम मयूर विहार से निकले हैं इन्डिया गेट की ओर और प्रगति मैदान से ही राज घाट की ओर मोड़ दिया जाता है, क्या कि मंत्री जी का काफिला आ रहा है । ऐसे में क्या किया जाये कोई चारा नहीं, क्यों कि मंत्री जी आने वाले हैं और राज मार्ग पर उनका पहला अधिकार है, जनता का बाद में ।
दूसरी बात यह है कि भारतीय लोक तंत्र में कमीशन खोरी को भ्रष्टाचार नहीं माना जाता है, बल्कि भ्रष्टाचार और राजनीति का चोली दामन का साथ माना जाता है। जैसे पुष्प का सुगंध से, चाँद का गगन से दीपक का अगन से जो अटूट रिश्ता होता है उसी प्रकार राजनेता का कमीशन से अटूट रिश्ता होता है । उसके बिना वह निष्प्राण होता है । राजीव जी के समय की बात है कि कुछ सिरफिरे लोगों ने जो उस समय विपक्ष में थे अचानक सदन में शोर मचाना शुरू कर दिया कि भारतीय सेना के लिए बोफोर्स की खरीद में रिश्वत खोरी की गई है जो भ्रष्टाचार है और भ्रष्टाचारियों को लोक तंत्र के सरकार में बने रहने का कोई अधिकार नहीं है । असल में यह मामला भ्रष्टाचार का नहीं दृष्टि दोष का है। विपक्ष में बैठे नेता को जो भ्रष्टाचार दिखाई देता है, वही सत्ता में बैठे नेता को कमीशन दिखाई देता है और इसके उलट, जब वह सरकार में होता है तो उसे भी भ्रष्टाचार नहीं दिखाई देता । इसी दैवी प्रेरणा से संचालित होकर कंग्रेस ने सम्विधान में लाभ के पद की परिभाषा को दुरुस्त कर दिया, जो बाबा अम्बेडकर की ऐतिहासिक भूल का परिणाम थी। अब ऐसा कोई अवसर नहीं आएगा जब सरकार में लाभ के पद पर बैठे राज नेता को संसद की सदस्यता से हाथ धोना पड़ जाये । दर असल इस सम्वैधानिक भूल सुधार में सभी राज नेताओं के उर्वर मस्तिष्क का योगदान है जो भारतीय लोक तंत्र के नेताओं का मैग्ना कार्टा कहा जा सकता है, जिससे उंनको भ्रष्टाचार के पैदाइशी राज मार्ग पर अबाध रूप से आगे बढ़ते रहने का सार्वभौमिक अधिकार प्राप्त हो गया है। अरे मैं तो भटक गया था, चर्चा कर रहा था बोफोर्स के मुकद्मे की। जन सेवकों पर रिश्वत खोरी का मुकद्मा चलाया गया, जो बीसों साल तक चला। परिणाम फिर वही ढाक के तीन पात। दस बार उच्च न्यायालय और पाँच बार उच्च्तम न्यायालय का चक्कर लगाने के बाद भ्रष्टाचार के रिश्वत की रकम कमीशन में बदल गयी और यह साबित हुआ कि कमीशन और रिश्वत्खोरी में फर्क होता है। यह व्यापार का नियम है कि विकसित देशों में बिना किसी कमीशन के भुगतान के कोई सौदा नहीं होता,तो भारत जैसे देश में तोप की सौदेबाज़ी में खाए गए कमीशन को रिश्वत खोरी से संग्यापित करना कानून की गलत व्याख्या करना होगा अतःआरोपियओं को बरी किया जाना चाहिए ।

जब मैं अपनी आय की तुलना राज नेताओं की आय से करता हूं तो लगता है कि कि बाढ़ और सुनामी का मुकाबला करने की कोशिश कर रहा हूँ । जो व्यक्ति सड़क-छाप हो, अगर उसे किसी दैवी कृपा से सदन तक पहुँचने का अवसर मिल जाय और उसके भीतर राजनैतिक वाइरस मौजूद हों तो मैं यह गारंटी से कह सकता हूँ कि वह पाँच साल में इतना कमा लेगा जितना उद्योगपति उतने समय में उतना नहीं कमा सकता है। आज जहाँ छोटे सरकारी पदों पर बैठे लोगों को भी आय कर देना पड. रहा है,जिसका कि मुश्किल से दाल रोटी का जुगाड़ हो पाता है। वहीं नेताओं पर और उनसे साठ गाठँ किए जमा खोरों पर आय कर विभाग की नज़र भी नहीं जाती बल्कि वह सुन्दर-सुन्दर अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के घरों पर छापे मार कर कोटा पूरा करता है।किंतु राज नेताओं के पास करोड़ों-अरबों की सम्पत्ति की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता । संसद में विश्वास मत के दौरान करोडों रुपये रिश्वत के रूप में लेने का आरोप लगा और टी वी चैनलों पर दिखाया भी गया, जिसकी जाँच के लिए संसदीय समितियाँ भी बनीं, लेकिन महीनों की औपचारिक माथा पच्ची करने के बाद यह भी पता नहीं लगा पाईं कि किस खाते से पैसा निकला, कहाँ से चला और किस उद्देश्य से कहाँ पहुंचा । मेरा ख्याल है कि अगर लीपापोती ही करनी थी तो उसे यह रिपोर्ट दे देना था कि संसद में दिखाया गया रिश्वत का रूपया नकली था, इस लिए किसी तरह की जाँच की जरूरत ही नहीं है, क्योंकि भ्रष्टाचार का मुकद्मा बनने के लिए नोटों का असली होना चाहिए, नकली नोटें लेना भ्रष्टाचार की परिभाषा में नहीं आता । इस लिए किसी जाँच का सवाल ही नहीं उठता।

महात्मा गान्धी जी ने कांग्रेस को नारा दिया था “जीयो और जीने दो”, जिसे सभी दलों ने संशोधित रूप में सर्व सम्मति से अपना लिया है वह यह कि “खाओ और खाने दो”। सत्ता पक्ष खाता है और उसी तरह खाता है, जैसे कि सब्ज़ी मंडी में आवारा साँड़ दुकानदारों के हट-हट करने और लगातार डंडा बरसाने के बावज़ूद भी दो गाल खा ही लेता है । सदन में विपक्ष हल्ला करता रहता है, जाँच समितियाँ बनती रहती हैं, वे या तो लीपा पोती कर रिपोर्ट दे देती हैं या तो उसे ठंडे बस्ते में डाल देती हैं। जो रिपोर्ट दे दी, सो अंतिम सत्य, जिसे सरकारी तंत्र की गोपनीयता के चादर में लपेट कर दफन कर दिया जाता है और जिसे सूचना के अधिकार की गेती से भी खोद कर नहीं निकाला जा सकता है। जब विप्क्ष का पाला पाँच साल बाद बदल जाता है और वह सत्तासीन होता है तो वह भी उसी नीति पर चलता है। जैसा कि राजीव गान्धी जी ने स्वीकार किया था कि जो पैसा पंचायतों में भेजा जाता है वह पहुँचते पहुँचते 100 पैसे से 15 पैसा शेष रह जाता है, और 85 पैसा रास्ते मे ही पता नहीं क्या हो जाता है। ऐसी बात नहीं कि उन्हें पता नहीं था कि 85 पैसा कहाँ जाता है? देश के बैंकों में जाता है या स्विश बैंकों में जाता है। इस लोक तंत्र में खाओ और खाने दो का सिद्धांत सर्व व्यापक है और सर्व मान्य भी। इसे चुनौती देना चीनी साड़ को लाल कपड़ा दिखाने जैसा है ,जैसे नेशनल हाइवे अथॉरिटी के इंजीनियर सत्येन्दर दुबे हत्या कांड, पी डबल्यू डी के उस इंजीनियर का हत्याकांड, जिसने मायावती जी के जन्म दिन मनाने के लिए वसूली जाने वाली रकम देने से इंकार कर दिया था। ऐसी सूचियाँ लम्बी हैं और समय सीमित ।
विश्व के सारे सभ्य कानून यह मानते हैं कि आपराधिक दुराशय के बिना किया हुआ कोई भी कार्य अपराध की परिभाषा की परिधि में नहीं आता। किंतु दिल्ली पुलिस ने किस दैवी प्रेरणा से कोबरा पोस्ट.कॉम के पत्रकार अनिरुद्ध बहल और सुहासिनी राज को भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के आरोप में चार्ज शीट किया, जिन्होंने संसदीय भ्रष्टाचार का खुलासा किया जिसमें संसद में प्र्श्न पूँछने के लिए संसदों को पत्रकारों से रिश्वत लेते स्टिंग ऑपरेशन का वीडियो दिखाया गया था। जब कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भ्रष्टाचार को बेनकाब करने के लिए पत्रकारों द्वारा स्टिंग ऑप्रेशन को सराहनीय बताया गया था, जिसकी वजह से बी एम डबल्यू कांड में वकील और सरकारी वकील की मिली भगत से गवाह को फोड़ते दिखाया गया था। ऐसे में जब स्टिंग ऑपरेशन करने वाले पत्रकारों को लोक तंत्र का प्रहरी कह कर उच्चतम न्यायालय द्वारा सराहा जा रहा है, वहीं पुलिस से साठ गाँठ कर उन्हें आरोपित कर किस कानून की रक्षा की जा रही है मेरे समझ में नहीं आ रहा है। तभी तो यह बात निकलती है मुख से ‘धन्य धन्य यह लोक तंत्र ’ । -विनय कुमार ओझा

Wednesday, August 19, 2009

आखिर कब तक टालेंगे पुलिस सुधार ?

आखिर कब तक टालेंगे पुलिस सुधार ?
जम्मू कश्मीर के शापियाँ बलात्कार और हत्या मामले चीख-चीख कर कह रहे हैं कि जिस विभाग पर जनता की सुरक्षा की जिम्मेदारी है, वही अगर उसके अधिकारों का भक्षक बन जाए तो उनके विरुद्ध जाँच की कोई निष्पक्ष संस्था नहीं है.उसी पुलिस के द्वारा जाँच होने पर कितनी न्यायोचित जाँच की सम्भावना है, यह किसी से छिपा नहीं है. पुलिस जब चाहे जिस मामले को ले देकर निपटा दे, उसकी कोई जवाबदेही नहीं है, क्योंकि उसके ऊपर के अधिकारियों को अपने रिश्वत के हिस्से से अधिक की फिक्र नहीं होती है. कहने को सीबीसीआईडी जैसी संस्था राज्यों में बनी है, किन्तु मधुमिता शुक्ला हत्या मामले को जिस ढंग से निपटाने की कोशिश की गयी, उससे उसके कामकाज के तरीके का आभास मिल जाता है. आरुषी हत्या मामले में भी इस तरह लीपापोती की गई कि सारे सबूत नष्ट हो गए. अंत में सीबीआई को केस देकर पल्ला झाड़ लिया गया. यह भी साधारण बात नहीं हैं. यक्ष प्रश्न यह है कि हथियारों से लेकर प्रशिक्षण तक पुलिस को तकनीकी रूप से पिछड़ा रखा जा रहा है जबकि अपराधी हाइटेक होते जा रहे हैं. तुका राम की तरह पुरानी रायफल लिए एके सैंतालीस से लैस आतंकी को पकड़ने के लिए जान की बाजी लगाने की हिमाकत हर पुलिस वाला नहीं कर सकता. मुम्बई हमले के बाद नेशनल इनवेस्टिगेटिव एजेंसी का गठन तो हो गया, पर अभी तक एक भी घटना की जाँच उसने शुरू नहीं की. घटना के समय तो सरकार ने बड़ी तेज़ी दिखाई, क्योंकि उस वक़्त चुनाव करीब था और जनता में आक्रोश बहुत ज्यादा था, उसके बाद उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया.

सी बी आई को इस्तेमाल करने का आरोप लगभग सभी सरकारों पर लग चुका है लेकिन उसको मजबूत करने के लिए आज तक कोई विशेस प्रयास नहीं हुआ. आज जिस तरह से अपराधियों द्वारा अपराध राज्यों की सीमा तोड़ कर अंतर-राज्यीय विस्तार लेता जा रहा है ऐसे में किसी ऐसी जाँच एजेंसी की जरूरत पर बहस को दबाया जा रहा है जो अमेरिकी संस्था एफ बी आई की तर्ज़ पर बिना राज्यों की सहमति के जाँच को आगे बढ़ा सके और सबूत नष्ट होने से बचाया जा सके . ऐसा क्यों किया जा रहा है किसी से छिपा नहीं है. अब समय आ गया है जब यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि न्याय जल्द मिले और लोक सेवक द्वारा किए गए अपराध के लिए ज्यादा दंड दिया जाय, साथ ही उनके निपटारे के लिए विशेष न्यायालय बनें और जो कम समय मे विचारण कर सकें, जिससे सामान्य जनता से लेकर राजनेताओं तक यह संकेत पहुंचे कि त्वरित और समुचित न्याय होने की सम्भावना है और न्यायिक प्रक्रिया में आम जनता के विश्वास को बहाल किया जा सके.

चाहे राज्य की पुलिस, जो अपने थाने की सीमा से बाहर किसी संग्येय अपराध की जाँच से भी पल्ला झाड़ लेती है और प्राथमिकी भी दर्ज़ करना मुनासिब नहीं समझती, वह पुलिस कई राज्यों की सीमाओं को प्रभावित करने वाले अपराधों के साथ कैसी जाँच करेगी,कहने लायक नहीं है. कुछ अपराध जैसे नशीले पदार्थों की तस्करी,फर्ज़ी नोटों का आतंक-वादियों द्वारा प्रचलन और आतंकी हमलों की जाँच जिनके तार विदेशों से जुड़े हैं और ज़ाली क्रेडिट कार्ड और साइबर अपराध जिनके जाँच का तकनीकी प्रशिक्षण राज्य की पुलिस को प्राप्त नहीं है और उनकी जाँच में लगने वाले आधुनिक उपकरण भी उपलब्ध नहीं हैं, कैसे करेगी यह सोंचने की जरूरत हमारे राजनेताओं को महसूस नहीं होती,क्योंकि सुरक्षा में दिन रात कमांडोज और विशेस रूप से प्रशिक्षित एस पी जी लगी रहती है,जिसे मुम्बई जैसे आतंकी हमलों की सूरत में भी त्वरित गति से राहत के लिए नहीं भेजा जा सकता,तो आम जनता की सुरक्षा की क्या गारंटी है? इतने पर भी यदि आज हमारे राजनेता यदि ऐसे कानून और विशेस पुलिस की जरूरत नहीं समझते तो यह साफ हो जाता है कि वे किस सीमा तक आम जनता के हितों की चिंता करते हैं ?

प्र्श्न यह है कि कब तक हम सामान्य हत्या और अपराध जो कि भावावेश और आत्म –नियंत्रण के आभाव मे हो जाते हैं और व्यावसाइक अपराधियों द्वारा धन उगाही के लिए किए गए आर्थिक अपराध को, हम कब तक एक ही चश्में से देखते रहेंगे? उनको साबित करने के लिए साक्ष्य की एक जैसी प्रक्रिया रख कर हम गलती कर बैठते हैं, क्योकि एक तरफ जो सामान्य रूप से ऐसा व्यक्ति है, जिसके विरुद्ध अन्य कोई आपराधिक मामला दर्ज़ नहीं है और दूसरी तरफ, जिसके ऊपर दर्जनों संगीन अपराधों की लम्बी सूची है और जिनमें भय के कारण साक्षी के साक्ष्य मिलने की बहुत ही कम सम्भावना है, दोनों को एक ही चश्में से देखकर निर्दोष मानकर विचारण करना और जमानत पर रिहा करना क्या सही है? मकोका और टाडा जैसे कनूनों की जरूरत आज नहीं है, आज यह कहना गलत है और उसका इस आधार पर विरोध करना कि मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हैं और भी गलत है. मानवाधिकार का क्या अर्थ है? प्रश्न यह है कि क्या हज़ारों लोगों की जो कि निर्दोष थे और आतंकी हमले के शिकार हुए, हत्या करने वाले दरिन्दे के मानवाधिकारों की वकालत करने वाले लोग आतंक वादियों को किस तरह से मानव की परिभाषा में लाते हैं, जो दानव का काम कर रहे हैं,क्या उनकी दृष्टि में आतंक-वादियों की गोलियों के शिकार हुए उन हज़ारों लोगों का भी कोई मानवाधिकार है भी कि नहीं? आज यह बात साफ होनी चाहिए कि विधाइका मे बैठे लोग किसकी वकालत कर रहे हैं? किसका मानवाधिकार और उसकी कोई सीमा भी है कि नहीं? आज समलैंगिक सीना ठोंक कर जिस मानवाधिकार की दुहाई दे रहे हैं उसे किसी भी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता है . माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय जिस परिप्रेक्ष्य में निर्णय दिया उसे ध्यान में रख कर ही उसकी व्याख्या करनी चाहिए .उसका विचार विन्दु उन निर्दोश अवयस्क बच्चों के मानवाधिकारों की रक्षा करना था जो कि यौन शोशण के शिकार हुए हैं उन्हें धारा 377 का अपराधी मान कर व्य्वहार करना उनके सम्वैधानिक और मूल अधिकारों का उल्लंघन करना है जो मानवाधिकारों का हनन है और ऐसी धारा को बने रहने का कोई औचित्य नहीं है .किंतु यह भी सच है कि ऐसी किसी धारा का भी होना जरूरी है जो उन लोगों के अधिकारों की रक्षा करे जिनकी इच्छा के विरुध जबरन अप्राक्रितिक मैथुन का शिकार बनाया जाय .अन्यथा पुरुशों की इज़्ज़त भी खतरे में पड़ जाएगी और उन्हें एफ आई आर दर्ज़ कराने के लिए कोई धारा नहीं मिलेगी .

अभी हाल में टाइम्स ऑफ इन्डिया में एक सर्वे का आँकणा छपा था जिसमें 84 % लोगों ने मौज़ूदा पुलिस व्यवस्था की कार्य प्रणाली की निष्पक्षता पर अविश्वास व्यक्त किया था. यह कितनी गम्भीर बात है और इसे गम्भीरता से न लेना और भी गम्भीर बात है, जिसे मौज़ूदा सरकार गम्भीरता से लेने की जरूरत नहीं समझती क्योंकि उनकी सुरक्षा के लिए एस पी जी और जेड कटेगरी की सुरक्षा मिली हुई है.ढेर सारे कमीशनों की सिफारिशों की अनदेखी करते हुए वर्तमान पुलिस व्यवस्था में सुधार किए बिना उसी के भरोसे जनता को छोड़ देना क्या मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं है? आज हमारे सामने यक्ष प्रश्न यह है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधे ? यदि हम यह अपेक्षा रखते हैं कि बिल्ली खुद घंटी लाकर हमें देगी और कहेगी कि इसे हमारे गले में बाँध दो तो यह सपना नहीं पूरा होने वाला .
-विनय कुमार ओझा

Friday, June 26, 2009

सब कुछ राम भरोसे-

सब कुछ राम भरोसे-
इस देश की स्थिति को देख कर किसी ने सच ही कहा था कि भगवान अगर कहीं है तो वह भारत में ही हो सकता है. क्यों कि जहाँ लोकतंत्र के तीनों स्तम्भों को भ्रष्टाचार के दीमक चाल चुके हों वह फिर भी खड़ा हो, इससे बड़ा आश्चर्य और क्या हो सकता है?य़हाँ सब कुछ राम भरोसे ही तो चल रहा है. यहाँ बच्चे बच्चे के ज़बान पर बाबा तुलसी दास की चौपाई –“होइहैं सोइ जो राम रचि राखा. को करि तरक बढ़ावहिं शाखा “ रटी- रटाई मिल जाएगी. अब देखिए न भा. ज. पा. पहली बार केन्द्र में राम भरोसे ही सरकार बनाने मे कामयाब रही . उत्तर प्रदेश में भा ज पा ने कई बार राम भरोसे ही सरकार बना कर शासन किया.

आडवानी जी राम भरोसे ही प्रधान मंत्री बनना चाहते थे.लेकिन भगवान राम को यह मंजूर नहीं हुआ, यह और ही बात है. चुनाव के सारे मुद्दों को ताख पर रख कर भा ज पा जाने कब ‘जय श्री राम’ का नारा लगाने लग जाती है पता ही नहीं चलता.
खैर छोड़िए भी, “अज़गर करे न चाकरी पंछी करै न काम . दास मलूका कह गए सबके दाता राम “ यह दोहा भा. ज.. पा का प्रेरणा स्तम्भ लगता है. उसे नहीं पता एक बार राम भरोसे सरकार बना लेने के बाद बार बार राम को सीढ़ी बना कर लाल किले पर नहीं चढ़ा जा सकता है . इस समय जब हार की समीक्षा की जा रही है तब पूरा दल दो भागों में बँटा है . एक यह कहता है कि राम एक शाश्वत सीढ़ी हैं जो दल को बार बार लाल किले पर चढ़ा सकते हैं तो दूसरा यह कहता है कि यह सीढ़ी घुन गयी है, जो पिछ्ले चुनाव में टूट चुकी है.यह देख कर मुझे तो यह डर लगता है कि कहीं भा ज पा का अंत समय न आ गया हो, क्योंकि अंत समय में ही राम का नाम मुख पर आता है कहीं राम का नाम लेते लेते इस दल का ही राम राम सत्य न हो जाए. कुछ लोग
तर्क देते हैं कि निर्बल के बल राम . क्योंकि भा ज पा आज निर्बल हो गई है, इस लिए उसे राम के बल की जरुरत है. राम का ही बल है जो हनुमान को समन्दर की छलाँग लगवा सकता है. अगर अगले आम चुनाव रूपी समन्दर की छलाँग लगानी है तो पार्टी को राम का नाम पतवार की तरह थामे रहना पड़ेगा.

यह वह देश है जहाँ वसूली कर ऊपर के अधिकारियों तक हिस्सा पहुँचाने वाली और दोनाली बन्दूक लिए ए के सैतालीस से लैस आतंकी को पकणने की हिम्मत रखने वाली पुलिस की जाँच- राम भरोसे, आसानी से पलट जाने वाले और झूठी गवाही देने वाले गवाहों की बुनियाद पर फैसला देने वाले और भारी संख़्या में सालों साल चलने वाले मुकद्मों के बोझ से दबे न्यायालयों में न्याय- राम भरोसे ,सरकार को दिया गया राजनीतिक दल द्वारा बाहर से समर्थन- राम भरोसे, देश की सुरक्षा- राम भरोसे, करोड़ों का कारोबार कर रहे बैंक की सुरक्षा -राम भरोसे, लोक तंत्र के ह्रिदय पर आतंकी हमला करने वाले फाँसी की सज़ा से दोष सिद्ध अपराधी की फाँसी - राम भरोसे, सम्विधान को हाथ में लेकर भय और पक्षपात के बिना जनता की सेवा करने की झूठी कसम खाने वाले नेताओं और मंत्रियों का चरित्र – राम भरोसे,
भा ज पा की पूरी राजनीति- राम भरोसे, क्रांति के पुरोधाओं को पैदा करने वाले सरकारी विद्यालयों और विश्व विद्यालयों का भविष्य -राम भरोसे, आम आदमी को स्वास्थ्य की गारंटी देने वाले सरकारी अस्पतालों की दशा -राम भरोसे, भारत का लोक तंत्र - राम भरोसे सब कुछ राम भरोसे ही तो चल रहा है. आज इतना ही, नहीं तो मुझ पर भी साम्प्रदायिक होने का आरोप लग जाएगा.अच्छा राम राम.

Sunday, June 21, 2009

शिक्षा की छीछालेदर और निजी दुकानेंi

शिक्षा की छीछालेदर और निजी दुकानें


कल टाइम्स आफ इंडिया में दो समाचार एक साथ छपे। एक यह कि टाइम्स नाउ ने केन्द्रीय मंत्री के निजी मेडिकल कालेज को कैपिटेशन फीस अवैध रुप से उगाही करते स्टिंग ऑपरेशन के तहत पकड़ा और दूसरा यह कि निजी डीम्ड युनिवेर्सिटीज में लगभग51 % छात्र प्रति वर्ष प्रवेश ले रहे हैं और सरकारी विश्व विद्यालयों का स्तर गिरता जा रहा है .सरकारी शिक्षड़ संस्थानों का लगातार गिरता स्तर राजनीतिग्यों के मुनाफाखोरी के लिए निजी शिक्षड़ संस्थाएं खोलने के प्रति बढ़ते आकर्षड़ के कारड़ है. ऐसा इस लिए है कि आज सरकारी विद्यालयों में जान बूझ कर शिक्षा की जो दुर्गति की जा रही है उसकी और कोई वजह नहीं बल्कि राजनीतिग्यों की साठ गांठ से चल रही शिक्षा की निजी दुकानें हैं जो मनमाने ढंग से पैसे की उगाही करते हैं. पहली चीज कि शिक्षा के लिए खोले गए सरकारी स्कूल आज अपर्याप्त पड़ रहे हैं और ज्यादा सरकारी स्कूल यह कह कर नहीं खोले जा रहे हैं कि आज कल लोग वहां अपने बच्चे भेजना नहीं चाह्ते हैं. अरे भाई क्या लोग पागल हो गए हैं कि ज्यादा पैसा देकर पढ़ाने का शौक चढ़ा है. दूसरी चीज कि आज यक्ष प्रश्न यह है कि क्या सरकारी स्कूल असाध्य रोग की तरह लाइलाज हो गए हैं और उनका प्रशाषन सुधारना असम्भव हो गया है.क्या सरकारी विद्यालयों के स्तर को सुधारना सरकार की जिम्मेदारी नहीं है ? वह अपनी जिम्मेदारी की टोपी बार बार क्यों दूसरों के सिर पर रख कर चैन से बैठ जाती है. इसकी कोई और वजह नहीं बल्कि निजी विद्यालयों के जरिए धन उगाही के प्रति ध्रितराष्ट्रीय मोह ही है. आज प्रश्न यह है कि सरकारी विद्यालयों में शिक्षा की छीछालेदर क्यों की जा रही है? उत्तर साफ है कि निजी विद्यालयों में बच्चों को भेजना जब तक मजबूरी नहीं बनाई जाएगी तब तक निजी विद्यालयों की दूकानें चलानी सम्भव नहीं हैं. ऐसा केवल एक ही कार्य के माध्यम से किया जा सकता है वह यह कि सरकारी विद्यालय आपर्याप्त संख्या में हों और उनमें भी सुशिक्षा की कोई आशा न रह जाए.
लार्ड मैकाले ने पूरे भारतवासियों को शिक्षा से वंचित रख्नने का जो फार्मूला निकाला वह अंग्रेजी माध्यम था. इससे उनके विकास की दर को सुस्त रखा जा सकता था और साथ ही उन्हें अपने रंग में रंगने में आसानी हो गई साथ ही भारतीयों में कुंठा की भावना भरनी भी आसान हो गई. तभी से बुद्धि के विकास की जगह तोतारटंत पढ़ाई का प्रचलन हो गया.मैं पूंछता हूं कि आज बाबा तुलसीदास, क़ालिदास, टैगोर, विवेकानन्द, राहुल सांक्रित्यायन जी ने किस कोंवेंट स्कूल से पढ़ाई की थी? जाहिर सी बात है कि आजादी के बाद सबसे बड़ी भूल जो हुई उसे मैं न माफ करने वाली गलती कहूंगा वह यह कि शिक्षा का राष्ट्रीयकरड़ न किया जाना और मात्रिभाषा में प्राथमिक शिक्षा का न दिया जाना.मैं इसे भूल इस लिए नहीं मानता क्योंकि जो सरकार में बैठ कर फैसले लेते रहे उनके बच्चों कोतो अव्वल दर्जे की शिक्षा मिलती रही और आम आदमी को वही घटिया दर्जे की शिक्षा लेने को बाध्य होना पड़ा. इसके बदले दोपहर का भोजन,आरक्षड़, वजीफा, आदि आदि क्या क्या दिया जाता रहा किंतु वह शिक्षा आम आदमी तक नहीं पहुंची जो राजनीतिग्यों के बच्चों और आभिजात्य वर्ग के बच्चों को मिलती रही. आज शिक्षा संस्थानों से लेकर सरकारी नौकरियों तक में आरक्षड़ का इंतजाम है किंतु इस बात की व्यवस्था नहीं है कि किसी गरीब आदमी का ब्च्चा मेडिकल,इंजीनियरिंग,मैनेजमेंट आदि की उच्च शिक्षा प्राप्त कर ले. क्योंकि उसकी फीस भर पाना उसके बूते की बात नहीं, तब वह अपने आरक्षड़ का क्या करे ? इस प्र्श्न का उत्तर आरक्षड़ की वकालत करने वाले देना नहीं चाह्ते.
अभी चुनाव के पहले प्रधान मंत्री जी ने यह घोषड़ा की थी कि विश्व स्तर की आठ यूनिवर्सिटीज खोलने की योजना बना रहे हैं. लेकिन हमारे सामने यक्ष प्रश्न यह है कि जिस तरह से विश्वविद्यालयों का प्रशाषन चलाने के लिए योग्यता को ताख पर रख कर वाइस चांसलरों की नियुक्तियां की जाती हैं और प्रोफेसरों की नियुक्तियां भी की जाती हैं क्या उस तरीके से हम ऐसी संस्थाएं कायम रख सकेंगे?आज सरकारी शिक्षड़ संस्थाओं की जो दुर्गति अपने धन उगाही के लिए सरकार में बैठे लोग कर रहे हैं उससे ज्यादा आशा करना दिवा स्वप्न देखने जैसा ही है.

क़ुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि आज सरकार इस मनोदशा में नहीं दिख रही है कि इस समाज के महापरिवर्तन के उपकरड़ शिक्षा तंत्र को चुस्त दुरुस्त कर गरीब से लेकर अमीर तक एक समान शिक्षा मुहैया कराए जिसमे बिना किसी वर्ग भेद के प्राथमिक से उच्च शिक्षा तक सबके लिए शिक्षा का दरवाजा खुल जाए. इसी तरह सरकारें चलती रहेगी,सरकारी शिक्षा की सरकार द्वारा छीछालेदर भी चलती रहेगी क्योंकि निजी स्कूलों की दुकानें अबाध रूप से चलानी है .

Saturday, June 20, 2009

'पड़ गया खतरे में'

आतंकी हमलों से हिन्दुस्तान पड़ गया खतरे में .
देश का बच्चा बच्चा हर इंसान पड़ गया खतरे में ..

चला मुकद्मा सालों तक और दोष सिद्धि तक जा पहुंचा –
पर अफज़ल की फांसी का फरमान पड़ गया खतरे में..

बेशर्मी का आज एक पर्याय बन गयी है खादी -
वीर सुभाश और बिस्मिल का बलिदान पड़ गया खतरे में..

आज लुटेरों और पुलिस में साठ- ग़ांठ कुछ ऐसी है -
आज देश का हर कोई धनवान पड़ गया खतरे में..

पहले तो वह आदेर्शों की खूब दुहाई देता था-
जब रिश्वत की रकम बढ़ी ईमान पड़ गया खतरे में..

बैंक लुटेरा ए के सैंतालिस ज़ब लेकरके पहुंचा -
दोनाली बन्दूक लिए दरवान पड़ गया खतरे में ..

राम नाम को लेकर इतनी राजनीति चमकाई कि -
रामलला मे स्थापित भगवान पड़ गया खतरे में..

नमक बढा आई चुपके से ननद सास की साज़िश में -
बहू विनिर्मित स्वाद भरा पकवान पड़ गया खतरे में॥

Tuesday, June 16, 2009

'कोई तो होगा'

इतनी बड़ी है दुनिया तो मुझ जैसा कोई तो होगा ।
मैं जितना प्यासा हूं उतना प्यासा कोई तो होगा।।

जाने कितने ऐसे हैं जो ज़ाम ज़हर का पीते हैं-
जो मेरे आँसू पी जाए ऐसा कोई तो होगा ॥

देख के तुमको दिल मे मेरे एक कशिश सी उठती है-
तेरे दिल का मेरे दिल से रिश्ता कोई तो होगा ।।

-विनय कुमार ओझा 'स्नेहिल'

Friday, March 27, 2009

लोकतंत्र के कहांर ही कहर बने.

लोकतंत्र के कहाँर ही कहर बने।

देश और समाज के लिए ज़हर बने ॥

आतंक के आरोप में जो दोषसिद्ध हैं-

वो ही समाजवाद के हैं पक्षधर बने ॥

सबको पता है आती है हर साल यहाँ बाढ़ -

किस हाल में नदी के तटों पर हैं घर बने॥

कीचड उछालते हैं वो औरों पे इस लिए -

वे सिर्फ़ चाहते हैं की उन पर ख़बर बने॥

बैठा के सबको खे सकेंगे नाव कहाँ तक-

पग पग पे सियासत के सैकड़ों भंवर बने॥

इन्सान भटक जाए सचाई के राह से -

केवल इसी लिए ही वासना के ज्वर बने ॥

Friday, February 13, 2009

चिराग अपनी उम्मीदों के....

बहुत अँधेरा है पर दिल को मत उदास रखो ।
चिराग अपनी उम्मीदों के आस पास रखो ॥
मेरी तस्वीर तुम्हे जाम में दिख जाएगी -
अपने होठों पे मेरे नाम की एक प्यास रखो ॥
हार ख़ुद जीत का बन हार गले आ के पड़े -
बुलंद इतना दिल में जीत का एहसास रखो॥
- विनय ओझा 'स्नेहिल'