हर घड़ी एक हादसे का डर लिए है देखिए।
भीड़ अपने हाथ में पत्थर लिए है देखिए।
शाम को जो घर से अपने निकला था बाज़ार को
कोई उसका धड़ लिए कोई सर लिए है देखिए॥
विनय ओझा स्नेहिल
Thursday, July 19, 2007
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मित्रों प्रस्तुत है मेरी कुछ कविताएं और कुछ व्यंग्य जो मेरे मन की सहज अभिव्यक्ति हैं, जो मुझे जीवन के उन क्षणों में अनुभूत हुई हैं, जब मन का निर्झर स्वतः रस की धारा से आप्लावित होने लगता है तब उसी को मैनें शब्दों में बाँधने की कोशिश की है। इसमें मैने कितनी सफलता पाई है इसका निर्णय आप स्वयं करें ।
1 comment:
मार्मिक, जी भर आया……।
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