Wednesday, September 9, 2009

‘हिन्दी का श्राद्ध’

मैं अतिथि कक्ष में सोफे पर बैठ कर कुछ लिख रहा था कि तभी दरवाज़े पर कॉल बेल की आवाज़ सुनाई दी दरवाज़ा खोला तो देखा कि इष्टदेव जी जो मेरे मित्र हैं और जिनका सिर घुटा हुआ है, दरवाज़े पर खड़े हैं। मैने प्रश्न किया कि क्या हुआ? सब कुशल है न? सिर क्यों घुटा रखा है? बोले पितृ-पक्ष है न?पिता जी का श्राद्ध किया है सो सिर घुटाना पड़ा। मैने पूँछा यह श्राद्ध क्या है?उन्होंने कहा कि यह शास्त्रोक्त परम्परा है कि जिनके पिताजी स्वर्ग-वासी हो चुके हैं, उन्हें भूख-प्यास तो लगती ही होगी,लिहाज़ा वर्ष में एक बार एक पखवाड़े तक उन्हें पिंड के रूप में भोजन और तर्पण के रूप में पानी दिया जाता है और इस पखवाड़े को पितृ-पक्ष कहते हैं।
अगले दिन मैं भी नाई की दुकान पर जाकर सिर घुटा दिया। अगले दिन जब इष्टदेव जी से मुलाकात हुई तो उन्होने आश्चर्य जनक दृष्टि से पूछा कि अरे यह क्या? आप के पिताजी तो अभी जीवित हैं तो फिर आपने सिर क्यों घुटा लिया?हमने कहा कि पिताजी तो अभी जीवित हैं किंतु हम सब की एक माता जी रही हैं, जिन्हें पूरे राष्ट्र की माता होने का गौरव प्राप्त था,परलोक सिधार चुकी हैं, मैं सोंचता हूँ कि पितृ-पक्ष में उन्हें भी पिंड–दान और तर्पण करना चाहिए सो उन पर श्रद्धा प्रदर्शित करने के लिए हिन्दी पखवाड़ा मनाऊंगा। हिन्दी पखवाड़ा पितृ-पक्ष में मनाया जाता है, जिसका उद्देश्य राष्ट्रभाषा हिन्दी का श्राद्ध करना और उसकी मृत-आत्मा को शांति प्रदान करने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करना। किंतु जिस प्रकार इसे मनाया जाता है उस पर मुझे आपत्ति है। प्रति वर्ष सभी सरकारें एक सर्कुलर ज़ारी करती हैं कि देश के सभी सरकारी कार्यालयों में हिन्दी पखवाड़ा मनाया जाएगा और हिन्दी में काम-काज को दिखावटी रूप से प्रोत्साहित किया जाएगा, यह और बात है कि हिन्दी पढ़ने,लिखने, और बोलने वाला वर्ष भर हीन भावना से ग्रस्त रहता है,मात्र हिन्दी पखवाड़े में उसका स्वाभिमान जागता है और फिर वर्ष भर के लिए कुंभकरणीय निद्रा में सो जाता है। मेरा मानना है कि हिन्दी पखवाड़े में साहित्यिक कार्यक्रमों के आयोजन और पुरष्कार वितरण के बज़ाय दो मिनट का मौन रखना अधिक लाभप्रद रहेगा,क्योंकि जहाँ दुनिया एक तरफ बाज़ार की आर्थिक मंदी और उससे उपजी महँगाई से जूझ रही है वहीं सरकार झूठ-मूठ में पानी की तरह पुरष्कारों पर पैसा बहा रही है,ऐसे में दो मिनट का मौन ज्यादा लाभप्रद सिद्ध होगा, साथ ही देश की अर्थ–व्यवस्था पर अतिरिक्त भार भी नहीं पड़ेगा और घंटों के उबाऊ कार्य-क्रमों से मुक्ति भी प्राप्त हो जाएगी।उन्होंने कहा श्राद्ध तो पितरों का किया जाता है न कि माताओं का अन्यथा इस पक्ष का नाम मातृ-पक्ष नहीं रखा होता? मैने कहा जो भी हो प्राचीन भारत में पुरुषों को स्त्रियों से ज्यादा अधिकार दिया गया था, तभी तो शास्त्र कहते हैं कि “यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवताः” अर्थात जहाँ पर स्त्रियों की पूजा होती है वहीं पर देवताओ का वास होता है। मैने प्रश्न किया कि स्त्रियों का श्राद्ध न करना उनके साथ भेद-भाव नहीं है ?क्या उनकी मृत आत्मा को भूख-प्यास नहीं लगती होगी? मैने कहा-आज जमाना बदल रहा है।आज की स्त्रियाँ पुरुषों से चार कदम आगे-आगे भाग रही हैं,पुरुष उनके मुकाबले बहुत पीछे छूट गए हैं। आज सरकार संसद से लेकर ग्राम पंचायत तक आरक्षण की व्यवस्था कर उनका उत्थान करने पर प्रतिबद्ध है और आप किस दुनिया में जी रहे हैं।मैने तो सोंच लिया है कि केन्द्र सरकार को एक पत्र लिखूंगा जिसमें यह सुझाव होगा कि सभी सरकारी कार्यालयों के लिए एक सरकुलर जारी किया जाय कि पितृ-पक्ष में मनाए जाने वाले हिन्दी पखवाड़े में पन्द्रहों दिन सभी हिन्दी प्रेमियों को सहित्यिक आयोजनों में श्वेत वस्त्र धारण करके यदि उनके पास हो तो श्वेत वर्णीय कुर्ता-धोती में आना होगा और नित्य दो मिंनट का मौन धारण करना होगा। साथ ही यह भी निर्देश होगा कि आज के इस आर्थिक मन्दी और महँगाई के दौर में साहित्यिक आयोजनों में मृत भाषा के कवियों और लेखकों पर पुरष्कार के रूप में पैसा बहाने की आवश्यकता नहीं है, ऐसा करना सरकारी अनुदानों का दुरुपयोग माना जाएगा और दोषी पाए जाने वालों के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही भी की जा सकती है । इसके बज़ाय सरकारी कार्यालयों में राष्ट्र-भाषा हिन्दी की मृत आत्मा की शांति के लिए दो मिनट का मौन रखने का प्रावधान किया जाना चाहिए और हिन्दी दिवस को राष्ट्रीय शोक दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिए और इस दिन राष्ट्रीय ध्वज को झुका दिया जाना चाहिए। इस दिन सरकारी कार्यालयों में राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया जाना चाहिए, इसी से हिन्दी की मृत आत्मा को शांति तथा मुक्ति पाप्त होगी।

4 comments:

Nitish Raj said...

ये बात तो सच है। साथ ही ये बात भी कि स्त्रियों के पास ज्यादा अधिकार थे वहां पर भी आपसे सहमत हूं। सब सही पर राष्ट्रीय ध्वज को झुकाने के पक्ष में नहीं मैं।

Nitish Raj said...

एक बात कहना भूल गया कि हो सके तो बेहरत होगा कि आप पैरे में बात लिखें तो ज्यादा आसानी हो पढ़ने में वर्ना एक बार क्रम टूटा तो फिर पकड़ नहीं पाते। वैसे अच्छा लिखा है आपने।

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

नारायण-नाराय़ण. ये क्या कर दिया आपने. अरे बात तो मौन रखने की थी और घंटा भर बोल गए. लग रहा है बलाग पर नहीं, इजलास पर हैं. चलिए अब हम मौन रखते हैं, हिन्दी माता की आत्मा की शांति हेतु प्रार्थना के क्रम में.

Parul kanani said...

satik abhivykti...main sahmat hoon..:)