Monday, September 7, 2009

मुफ्त और जबरदस्ती शिक्षा-

अभी हाल में केन्द्र सरकार ने एक विधेयक पारित किया है, जिसका नाम है मुफ्त और जबर्दस्ती शिक्षा अधिनियम ( फ्री एंड कम्पल्सरी एजुकेशन ऍक्ट)। यह एक केन्द्रीय मंत्री जो कि पेशे से वकील हैं, के उर्वर मस्तिष्क की उपज है । जैसा कि वकीलों का मस्तिष्क बहुत उर्वर होता है और मुवक्किलों के फायदे की लगातार फसलें काटते रहने के बावजूद भी जिसकी उर्वरता घटने की जगह दिन दूनी रात चौगुनी दर से बढ़ती रहती है । जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, ‘फ्री’ का तात्पर्य है- मुफ्त और ‘कमपल्सरी’ का तात्पर्य है-जबर्दस्ती। अब यह केन्द्र सरकार को लगने लगा है कि जनता को निःशुल्क शिक्षा देना सरकार की सम्बैधानिक जिम्मेदारी रही है, जिसे वह अब तक औपचारिक रूप से उसी तरह निभाती रही है, जिस तरह सरकारी कर्मचारी आय कर की जिम्मेदारी बेचारगी से निभाता है। उसे वह इस तरह सजा संवार कर प्रस्तुत करना चाहती है जिससे यह प्रतीत हो कि यह एक ऐसी इकलौती सरकार है, जिसने शिक्षा के महत्व को समझा है ।
आज सरकारी विद्यालयों की दशा यह चीख चीख कर बता रही है कि सरकार उनका कितना ध्यान रखती है । कहीं विद्यालय हैं, तो भवन नहीं,कहीं बच्चे हैं, तो अध्यापक नहीं, कहीं अध्यापक हैं, तो बच्चे नहीं और कहीं किताबें नहीं पहुँचीं। कहीं बागीचे में कक्षाएं चल रहीं हैं, कहीं जाड़े की गुनगुनी धूप में कक्षाएं चल रही हैं। कहीं अध्यापक हैं तो सरकार के पास उन्हें देने के लिए पैसा नहीं है। वैसे जब से नीतीश जी ने सत्ता सम्भाली है तब से अध्यापकों के वेतन समय से मिल जा रहे हैं। जब लालू जी और राबड़ी जी की सरकार थी तो यह मान कर चला जाता था कि ये सरकारी विद्यालय उस भारत के हैं जहाँ कभी गुरुकुल शिक्षा प्रणाली थी।गुरु जी के राशन पानी की जिम्मेदारी शिष्यों के कन्धों पर होती है जिसे वे भिक्षाटन से पूरी कर सकते हैं । आज के मास्टर साहब तो काश्तकार परिवार से हैं लिहाजा अपनी रोटी दाल का जुगाड़ खेती किसानी से बिना भिक्षाटन के भी पूरी कर सकते हैं ।

बिना पैसे के मिली चीज़ की गुणवत्ता की कोई गारंटी नहीं होती ।उसी तरह ज़बरदस्ती कराए गए किसी काम के गुणवत्ता की भी कोई गारंटी नहीं होती है। जिस प्रकार से प्रेशर कुकर की खरीद के समय फ्री मिले इलेक्ट्रिक प्रेस की कोई गारंटी नहीं, उसी तरह सरकार द्वारा फ्री में दी जाने वाली शिक्षा की गुणवत्त्ता की अपेक्षा करना मूर्खता है। दर असल सरकार के साथ ज़बर्दस्ती की जा रही है जो उसे वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुसार शिक्षकों को वेतनमान देना पड़ रहा है और पूरे देश के शिक्षकों और विद्यालयों के स्टाफ को वेतन देना पड़ रहा है। अगर यह उद्योग की परिभाषा में आता तो सरकार इसे सिक इन्डस्ट्री घोषित कर प्राइवेट सेक्टर में देकर पल्ला झाड़ लेती
किंतु सम्विधान है कि उसे इस आर्थिक मन्दी के दौर में भी जबर्दस्ती आर्थिक बोझ उठाना पड़ रहा है, इसी लिए अधिनियम में कम्पल्सरी शब्द का प्रयोग किया गया है।
सरकारी विद्यालयों में शिक्षा का स्तर तब से गिरना प्रारम्भ हुआ है, जबसे सरकारी अनुदान और सुविधाएं वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुसार देना शुरु हुआ है। इस माइने में लालू जी और राबड़ी जी की सोंच का लोहा मानना चाहिए। उनकी सोंच के अनुसार जब हमारे देश में गुरुकुल शिक्षा प्रणाली थी और शिष्य भीख माँग कर न केवल अपना और गुरु जी के परिवार का भी पेट भरते थे, बल्कि पढ़ लिख कर प्रकांड विद्वान भी बनते थे, तब क्या राजा महाराजा उन्हें अनुदान देते थे? अरे भाई यदि उन्हें अनुदान मिलता तो क्या प्रत्येक शिष्य गली-गली घर-घर भिक्षाम देहि,भिक्षाम देहि की आवाज थोड़ी लगाता । ज़ो शिक्षा भिक्षाटन का अन्न खाकर द्रोणाचार्य,शंकराचार्य और राम कृष्ण ने अपने शिष्यों को दे दी और कालीदास,तुलसीदास,सूरदास,कबीर दास और नानक जैसे विद्वान दे दिए, वह शिक्षा छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुसार वेतन पाने वाले क्यों नहीं दे पा रहे हैं। अरे सबका दिमाग खराब हो गया है, इसी प्रेरणा से लालू जी और राबड़ी जी के शासन काल में अध्यापकों का वेतन रोक दिया जाता था, वरना क्या सरकार के पास पैसे की कमी थी ? राजनेताओं के शान और रईसी में तो कोई कमी नहीं आई थी ।

इन सब के बावजूद् भी आज आम आदमी को सरकारी विद्यालय में अपने बच्चों को भेजना एक मजबूरी है जबकि वहाँ अच्छी शिक्षा की कोई सम्भावना नहीं है। वहीं इन स्कूलों में पढाना शिक्षको की मजबूरी है चाहे बच्चे पहुँचे या न पहुँचें। अब तो सरकार बच्चों को रिझाने के लिए दोपहर का भोजन भी दे रही है जिससे गली मोहल्ले के खाली बच्चे खाने की लालच में स्कूल पहुँच ही जाते हैं लेकिन उनकी शिक्षा का स्तर वही मुफ्त वाला ही है। एक और सुविधा हो गयी है कि एक हज़ार का खाना बाँट कर दो हज़ार का बिल भेज दिया जाता है और कागज में सरकार की योजना भी चलती है और हेड-मास्टर की ऊपरी आमदनी भी। लेकिन एक खास चीज़ जो नदारद है वह है सुशिक्षा । जो न तो मिल पा रही है और न जिसके मिलने की उम्मीद ही है ।

1 comment:

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

लेकिन साहब सरकार देकर ही रहेगी मुफ्त और जबर्दस्ती शिक्षा. वह आपके कहने से नहीं मानेगी.