Tuesday, June 5, 2012

संसद बनाम जनता

अन्ना हजारे जी के साथ जब पूरा देश लोकपाल बिल के लिए आन्दोलन कर रहा था तब सारे सांसद, विपक्ष को छोड़ करएक स्वर में घोषणा कर रहे थे कि संसद  सर्वोच्च हैक़ानून बनाने का काम संसद का है और प्रत्येक सर्वोच्च संस्था को यह विशेष अधिकार होता है कि वह कार्य करे या करे तभी तो वह सर्वोच्च हैउसी तरह संसद को इस बात की भी स्वतंत्रता होती है कि सही क़ानून बनाए या गलत क़ानून बनाए , कमज़ोर क़ानून बनाए या मज़बूत क़ानून बनाए या कोई भी कानून बनाएउसके ऊपर कोई दबाव बनाना उसकी सर्वोच्चता को चुनौती देना है, और ऐसा करना संसदीय विशेषाधिकार का उल्लंघन हैउसकी सर्वोच्चता को चुनौती देने का परिणाम बाबा रामदेव अच्छी तरह समझ चुके हैं किन्तु अन्ना जी को समझाने में अभी समय लगेगा।


रकार बार बार समझाती रही कि लोकपाल  से ही भ्रष्टाचार नहीं मिटेगा। इसके लिए ढेर सारे कदम उठाने पड़ेंगे, किन्तु यक्ष प्रश्न यह है कि वे कदम कब उठाए जाएँगे और उन्हें उठाने से कौन से लोग रोक रहे हैं। एक दो बार को छोड़ दें तो आज़ादी के बाद से अब तक कांग्रेस ही केंद्र में रही है पर वे कदम क्यों नहीं उठाए गए इसका जवाब कोई और ही देने को तैया है। आज अब भ्रष्टाचार रुपी का कोढ़ का वाइरस पूरे लोकतंत्र की नसों में इस तरह फ़ैल चुका है कि अब उपचार के आशा की कोई किरण ही नहीं दिखाई देती


कभी राजीव गाँधी जी ने अनुभव किया था कि किसी विकास योजना के तहत सौ पैसा दिल्ली से चलता है तो गाँव तक पहुँचते पहुँचते मुश्किल से दस पैसा रह जाता हैकिन्तु राजीव जी बहुत भोले व्यक्ति थे उन्हें यह पता नहीं था कि नब्बे पैसे कहाँ पहुँच रहे हैंएक दो बार राहुल जी ने भी वही बात दुहराई है शायद वह भी उतने ही भोले हैंकिन्तु अन्ना हजारे और भारत की सारी जनता को पता है कि उन विकास योजनाओं के नब्बे पैसे कहाँ चले गए और उन्हें वापस लाने के लिए आन्दोलन चलाने वाले बाबा रामदेव और उनके साथ के लोगों का क्या हाल हुआ


पहले तो दुष्प्रचार किया गया कि अन्ना जी भी दूध के धुले नहीं हैं , फ़ौज के भगोड़े हैं , उन्होंने सरकारी अनुदान का घपला किया है, आर एस एस के एजेंट हैं बी जे पी के लोग उन्हें बरगलाकर इस्तेमाल कर रहे हैं आदि आदि ..लेकिन अन्ना टीम आन्दोलन पर आमादा थीदिन पर दिन अनशन के बढ़ते गए , जन सैलाब उमड़ता गया, जनाक्रोश बढ़ता जा रहा था और सरकार घिरती गई और अंत में पूरी संसद ने एक स्वर में संकल्प प्रस्ताव पारित किया कि हम आदरणीय अन्ना जी की भावना का सम्मान करते हैं और आश्वस्त करते हैं कि कि एक सशक्त लोकपाल बिल ला कर दिखाएंगे किन्तु इसमें थोडा समय लगेगाउपवास टूट गया।फिर संसद की सर्वोच्चता  का भाव जागा ।  लोक पाल बिल का मसौदा पेश हुआ और लोक सभा में बहस शुरू हुई ।
 लोक सभा में बहस की तीन धारा  थी । पहली  धारा यह थी कि  संसद सर्वोच्च है, उसे जैसा चाहे वैसा क़ानून बनाने का विशेष अधिकार है । इस विशेषाधिकार में क़ानून न बनाने का भी विशेषाधिकार है, इस पर क़ानून बनाने के लिए  दबाव बनाना भी विशेषाधिकार का उल्लंघन है । बहस की दूसरी धारा यह थी कि लोक पाल कितना मज़बूत हो ? लालूजी और मुलायम जी का कहना था कि  लोक पाल इतना मज़बूत न हो कि  सरकार की ही छाती पर चढ़ बैठे और कहने लगे कि मार दिया जाय कि  छोड़ दिया जाय ,बोल तेरे साथ क्या सलूक किया जाए ? बहस की तीसरी धारा यह थीकि लोकायुक्त बना कर राज्यों की स्वायत्तता न छीनी जाए ।राज्यों को अपने विषय पर क़ानून बनाने का निरापद अधिकार है ।राज्य के विषय पर राज्य की विधायिका सर्वोच्च है । सर्वोच्च  संस्था की संविधान में कोई  स्पष्ट लक्ष्मण रेखा नहीं खींची गयी है ।लोकायुक्त की नियुक्ति की बात  मानने में राज्यों की विधायिका की सर्वोच्च्ता को ख़तरा है । संविधान की भूमिका में साफ लिखा गया है कि हम भारत के लोग समाजवादी धर्म निपेक्सह्य , लोकतान्त्रिक गणराज्य की स्थापना हेतु संविधान को लोकार्पित करते हैं ।चुनाव के बाद जिस संविधान की शपथ खाते हुए जिस जनता की सेवा करने के लिए संकल्प लिया जाता है  फिर  वे लोग कोइ  महत्व नहीं रखते हैं । असली बात यह है कि  पांच साल तक संसद सर्वोच्च रहती है फिर चुनाव आता है और तब जो पांच साल तक संसद की सर्वोच्चता की दुहाई देते थे वही लोग गाँव -गाँव,गली- गली, शहर शहर शराब, पैसे और  कम्बल बांटते हैं और दोनो हाथ जोड़ कर भिखारियों की तरह दीन-हीन भाव दिखाते हुए वोट मांगते हुए  कहते हैं कि जनता सर्वोच्च है । दस खलनायकों को खडा कर उनमें से एक को  जन नायक चुनने की अपील करते हैं और हम उनमें से एक खलनायक को  बेचारगी  से जन नायक चुन कर संसद में भेज देते हैं ।वही जब सदन में पहुँच जाता है फिर जोर से चिल्लाता  है कि  संसद सर्वोच्च है और जनता पांच साल तक ठगी- ठगी सी रह जाती है और वे  करोड़ों जनता को अंगूठा दिखा दिखा कर पांच साल तक कहते हैं कि  संसद सर्वोच्च है । विनय ओझा 'स्नेहिल' at 6:40 AM Labels: व्यंग


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