Tuesday, October 23, 2012

नई ग़ज़ल

  हर बात में कहते हैं वो मुझसे कि  तुम्हे क्या ?
माली चमन को लूट के खाए तो तुम्हे क्या ?

सुनवाई हुई पूरी सज़ा बरकरार है -
फांसी पे न हम उसको चढ़ाएं तो तुम्हे क्या?

ज़म्हूरियत में चुनना सिर्फ  सबका फ़र्ज़ है -
 रहज़न उम्मीदवार है तो इससे तुम्हे क्या ?

दर दर पे सिर झुकाके है सेवा का व्रत लिया-
फिर पांच साल हाथ न आयें तो तुम्हे क्या ?

मेरे ही बुजुर्गों ने बसाई थीं बस्तियाँ -
मैं आग अगर उनको लगाऊं तो तुम्हे क्या  ?

इस देश का पैसा तो विदेशों में जमा है -
इस देश में वापस नहीं लाएं तो तुम्हे क्या ?

मेरा वज़ीरेआज़म तो ईमानदार है-
आरोपों की न जांच कराए तो तुम्हे क्या  ?

विनय ओझा 'स्नेहिल'

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