Monday, December 22, 2008

आंधियों में दिए हम जलाते रहे

आँधियों में दिये हम जलाते रहे ।
नीद अँधियारों की हम उड़ाते रहे ॥

बस उन्ही को ही मंज़िल मिली दोस्तों -
ठोकरें खाके जो मुस्कराते रहे॥

ये न पूँछो कि कैसे कटी ज़िन्दगी-
अश्क पीते रहे ग़म को खाते रहे॥

गर न पाया कभी काट खाया उन्हें -
दूध साँपों को जो थे पिलाते रहे॥

सोंचिए प्यास उनकी बुझी किस तरह-
उम्र भर जो पिए और पिलाते रहे॥

नोट की गद्दियाँ रख के हाथों में वो-
मेरे ईमान को आजमाते रहे॥

उन दीयों से अंधेरों की होगी सुलह-
जो सदा रौशनी बेंच खाते रहे ॥

दुनिया ने उनको कुछ भी न बनने दिया -
सर हर एक देर पे जो थे झुकाते रहे॥

इस तरह से भी 'स्नेहिल' से क्यों रूठना -
मुडके देखा भी ना हम बुलाते रहे॥

3 comments:

रंजना said...

वाह ! वाह ! वाह !
लाजवाब रचना सीधे मर्म तक पहुँचती है..साधुवाद.ऐसे ही लिखते रहें.

vijay kumar sappatti said...

bahut hi acchi kavita .

ये न पूँछो कि कैसे कटी ज़िन्दगी-
अश्क पीते रहे ग़म को खाते रहे॥

mujhe ye pankhtiyan bahut pasand aayi hai ..

bahut badhai

kabhi mere blog par aayiyenga pls

vijay
poemsofvijay.blogspot.com

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

कविता प्रभावशाली है । बहुत अच्छा िलखा है आपने । बधाई । मैने अपने ब्लाग पर एक लेख लिखा है- आत्मविश्वास के सहारे जीतें जिंदगी की जंग-समय हो पढें और कमेंट भी दें-

http://www.ashokvichar.blogspot.com