Sunday, June 21, 2009

शिक्षा की छीछालेदर और निजी दुकानेंi

शिक्षा की छीछालेदर और निजी दुकानें


कल टाइम्स आफ इंडिया में दो समाचार एक साथ छपे। एक यह कि टाइम्स नाउ ने केन्द्रीय मंत्री के निजी मेडिकल कालेज को कैपिटेशन फीस अवैध रुप से उगाही करते स्टिंग ऑपरेशन के तहत पकड़ा और दूसरा यह कि निजी डीम्ड युनिवेर्सिटीज में लगभग51 % छात्र प्रति वर्ष प्रवेश ले रहे हैं और सरकारी विश्व विद्यालयों का स्तर गिरता जा रहा है .सरकारी शिक्षड़ संस्थानों का लगातार गिरता स्तर राजनीतिग्यों के मुनाफाखोरी के लिए निजी शिक्षड़ संस्थाएं खोलने के प्रति बढ़ते आकर्षड़ के कारड़ है. ऐसा इस लिए है कि आज सरकारी विद्यालयों में जान बूझ कर शिक्षा की जो दुर्गति की जा रही है उसकी और कोई वजह नहीं बल्कि राजनीतिग्यों की साठ गांठ से चल रही शिक्षा की निजी दुकानें हैं जो मनमाने ढंग से पैसे की उगाही करते हैं. पहली चीज कि शिक्षा के लिए खोले गए सरकारी स्कूल आज अपर्याप्त पड़ रहे हैं और ज्यादा सरकारी स्कूल यह कह कर नहीं खोले जा रहे हैं कि आज कल लोग वहां अपने बच्चे भेजना नहीं चाह्ते हैं. अरे भाई क्या लोग पागल हो गए हैं कि ज्यादा पैसा देकर पढ़ाने का शौक चढ़ा है. दूसरी चीज कि आज यक्ष प्रश्न यह है कि क्या सरकारी स्कूल असाध्य रोग की तरह लाइलाज हो गए हैं और उनका प्रशाषन सुधारना असम्भव हो गया है.क्या सरकारी विद्यालयों के स्तर को सुधारना सरकार की जिम्मेदारी नहीं है ? वह अपनी जिम्मेदारी की टोपी बार बार क्यों दूसरों के सिर पर रख कर चैन से बैठ जाती है. इसकी कोई और वजह नहीं बल्कि निजी विद्यालयों के जरिए धन उगाही के प्रति ध्रितराष्ट्रीय मोह ही है. आज प्रश्न यह है कि सरकारी विद्यालयों में शिक्षा की छीछालेदर क्यों की जा रही है? उत्तर साफ है कि निजी विद्यालयों में बच्चों को भेजना जब तक मजबूरी नहीं बनाई जाएगी तब तक निजी विद्यालयों की दूकानें चलानी सम्भव नहीं हैं. ऐसा केवल एक ही कार्य के माध्यम से किया जा सकता है वह यह कि सरकारी विद्यालय आपर्याप्त संख्या में हों और उनमें भी सुशिक्षा की कोई आशा न रह जाए.
लार्ड मैकाले ने पूरे भारतवासियों को शिक्षा से वंचित रख्नने का जो फार्मूला निकाला वह अंग्रेजी माध्यम था. इससे उनके विकास की दर को सुस्त रखा जा सकता था और साथ ही उन्हें अपने रंग में रंगने में आसानी हो गई साथ ही भारतीयों में कुंठा की भावना भरनी भी आसान हो गई. तभी से बुद्धि के विकास की जगह तोतारटंत पढ़ाई का प्रचलन हो गया.मैं पूंछता हूं कि आज बाबा तुलसीदास, क़ालिदास, टैगोर, विवेकानन्द, राहुल सांक्रित्यायन जी ने किस कोंवेंट स्कूल से पढ़ाई की थी? जाहिर सी बात है कि आजादी के बाद सबसे बड़ी भूल जो हुई उसे मैं न माफ करने वाली गलती कहूंगा वह यह कि शिक्षा का राष्ट्रीयकरड़ न किया जाना और मात्रिभाषा में प्राथमिक शिक्षा का न दिया जाना.मैं इसे भूल इस लिए नहीं मानता क्योंकि जो सरकार में बैठ कर फैसले लेते रहे उनके बच्चों कोतो अव्वल दर्जे की शिक्षा मिलती रही और आम आदमी को वही घटिया दर्जे की शिक्षा लेने को बाध्य होना पड़ा. इसके बदले दोपहर का भोजन,आरक्षड़, वजीफा, आदि आदि क्या क्या दिया जाता रहा किंतु वह शिक्षा आम आदमी तक नहीं पहुंची जो राजनीतिग्यों के बच्चों और आभिजात्य वर्ग के बच्चों को मिलती रही. आज शिक्षा संस्थानों से लेकर सरकारी नौकरियों तक में आरक्षड़ का इंतजाम है किंतु इस बात की व्यवस्था नहीं है कि किसी गरीब आदमी का ब्च्चा मेडिकल,इंजीनियरिंग,मैनेजमेंट आदि की उच्च शिक्षा प्राप्त कर ले. क्योंकि उसकी फीस भर पाना उसके बूते की बात नहीं, तब वह अपने आरक्षड़ का क्या करे ? इस प्र्श्न का उत्तर आरक्षड़ की वकालत करने वाले देना नहीं चाह्ते.
अभी चुनाव के पहले प्रधान मंत्री जी ने यह घोषड़ा की थी कि विश्व स्तर की आठ यूनिवर्सिटीज खोलने की योजना बना रहे हैं. लेकिन हमारे सामने यक्ष प्रश्न यह है कि जिस तरह से विश्वविद्यालयों का प्रशाषन चलाने के लिए योग्यता को ताख पर रख कर वाइस चांसलरों की नियुक्तियां की जाती हैं और प्रोफेसरों की नियुक्तियां भी की जाती हैं क्या उस तरीके से हम ऐसी संस्थाएं कायम रख सकेंगे?आज सरकारी शिक्षड़ संस्थाओं की जो दुर्गति अपने धन उगाही के लिए सरकार में बैठे लोग कर रहे हैं उससे ज्यादा आशा करना दिवा स्वप्न देखने जैसा ही है.

क़ुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि आज सरकार इस मनोदशा में नहीं दिख रही है कि इस समाज के महापरिवर्तन के उपकरड़ शिक्षा तंत्र को चुस्त दुरुस्त कर गरीब से लेकर अमीर तक एक समान शिक्षा मुहैया कराए जिसमे बिना किसी वर्ग भेद के प्राथमिक से उच्च शिक्षा तक सबके लिए शिक्षा का दरवाजा खुल जाए. इसी तरह सरकारें चलती रहेगी,सरकारी शिक्षा की सरकार द्वारा छीछालेदर भी चलती रहेगी क्योंकि निजी स्कूलों की दुकानें अबाध रूप से चलानी है .

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