लोकतंत्र के कहाँर ही कहर बने।
देश और समाज के लिए ज़हर बने ॥
आतंक के आरोप में जो दोषसिद्ध हैं-
वो ही समाजवाद के हैं पक्षधर बने ॥
सबको पता है आती है हर साल यहाँ बाढ़ -
किस हाल में नदी के तटों पर हैं घर बने॥
कीचड उछालते हैं वो औरों पे इस लिए -
वे सिर्फ़ चाहते हैं की उन पर ख़बर बने॥
बैठा के सबको खे सकेंगे नाव कहाँ तक-
पग पग पे सियासत के सैकड़ों भंवर बने॥
इन्सान भटक जाए सचाई के राह से -
केवल इसी लिए ही वासना के ज्वर बने ॥
2 comments:
बहुत ख़ूब! उम्दा रचना है.
बधाई विनय जी प्रयास जारी रखें ....
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