Monday, January 7, 2008

ग़ज़ल

अब सुनाई ही नहीं देती है जनता की पुकार।
इस तरह छाया हुआ है उनपे गद्दी का खुमार ॥

अब दुकानों से उधारी दूर की एक बात है-
जब बगल वाले नहीं देते हैं अब हमको उधार ॥

लाँघ पाना या गिरा पाना जिसे मुमकिन नहीं -
हर दिलों के दरमियाँ नफरत की है ऊँची दिवार॥

सैकड़ों बगुलों ने मिल घेरा है एक दो हंसों को-
लगता नामुमकिन है लाना अब सियासत में सुधार॥

खुद की कुर्बानी का जज्बा गुम गया जाने कहाँ-
इस शहर में हर कोई है लूटने को अब तयार॥


-विनय ओझा 'स्नेहिल '

5 comments:

नीरज गोस्वामी said...

लाँघ पाना या गिरा पाना जिसे मुमकिन नहीं -
हर दिलों के दरमियाँ नफरत की है ऊँची दिवार॥
सच्ची बात...बहुत खूब...वाह.
नीरज

Asha Joglekar said...

हकीकत को बयाँ करने वाली रचना ।
खुद की कुर्बानी का जज्बा गुम गया जाने कहाँ-
इस शहर में हर कोई है लूटने को अब तयार॥
बहुत खूब !

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत ही बेहतरीन गजल है।बधाई स्वीकारें।

खुद की कुर्बानी का जज्बा गुम गया जाने कहाँ-
इस शहर में हर कोई है लूटने को अब तयार॥

पारुल "पुखराज" said...

bahut khuub..kaafi dino baad aapko padhaa..shukriya

जेपी नारायण said...

तेरी जुबान से निकली तो सिर्फ नज्म बनी,
हमारे हाथ में आई तो एक मशाल हुई।
बड़ा लगाव है इस मोड़ से निगाहों को,
कि सबसे पहले यहीं रोशनी हलाल हुई।