Monday, December 10, 2007

वक्त भर देता है ...

वक़्त भर देता है हर एक ज़ख्म की गहराईयाँ ।
फिर भी रह जाती हैं क्यों ये मातमी परछाइयाँ ॥

या खुदा एक पल में दिखता दो तरह ज़लवा तेरा-
एक तरफ मातम का डेरा एक तरफ शहनाइयाँ ॥

स्याह रातों से न जाने दिल क्यों घबराने लगा-
साँप सी डसती हैं मुझको शाम की तन्हाइयाँ ॥

दफन अश्कों ने किया ग़म के कई तूफान को -
दर्द भरती हैं नसों में मद भरी पुर्वाईयाँ ॥

जो सबेरे उठ गए मीलों सफर से आ चुके-
रह गए बिस्तर पे जो लेते रहे अन्गडाइयां॥

जिनको चुन कर भेजा अपनी रहनुमाई के लिए -
बैठ कर सदनों में वे लेते हैं अब जम्हाइयां ॥

विनय ओझा 'स्नेहिल'

4 comments:

अमिताभ मीत said...

अच्छा है विनय साहब. कुछ शेर भी अच्छे हैं और व्यंग्य भी. दूसरा शेर खास तौर पे बहुत अच्छा लगा. बधाई.

बालकिशन said...

जिनको चुन कर भेजा अपनी रहनुमाई के लिए -
बैठ कर सदनों में वे लेते हैं अब जम्हाइयां ॥

वाह! बहुत सुंदर. अच्छा लिखा आपने.

Divine India said...

बहुत बेहतरीन गज़ल लिखी है…।
मुझे तो प्रत्येक पंक्तियाँ छू गईं।

Advocate Rashmi saurana said...

bhut sundar gajal.likhate rhe.