Wednesday, August 19, 2009

आखिर कब तक टालेंगे पुलिस सुधार ?

आखिर कब तक टालेंगे पुलिस सुधार ?
जम्मू कश्मीर के शापियाँ बलात्कार और हत्या मामले चीख-चीख कर कह रहे हैं कि जिस विभाग पर जनता की सुरक्षा की जिम्मेदारी है, वही अगर उसके अधिकारों का भक्षक बन जाए तो उनके विरुद्ध जाँच की कोई निष्पक्ष संस्था नहीं है.उसी पुलिस के द्वारा जाँच होने पर कितनी न्यायोचित जाँच की सम्भावना है, यह किसी से छिपा नहीं है. पुलिस जब चाहे जिस मामले को ले देकर निपटा दे, उसकी कोई जवाबदेही नहीं है, क्योंकि उसके ऊपर के अधिकारियों को अपने रिश्वत के हिस्से से अधिक की फिक्र नहीं होती है. कहने को सीबीसीआईडी जैसी संस्था राज्यों में बनी है, किन्तु मधुमिता शुक्ला हत्या मामले को जिस ढंग से निपटाने की कोशिश की गयी, उससे उसके कामकाज के तरीके का आभास मिल जाता है. आरुषी हत्या मामले में भी इस तरह लीपापोती की गई कि सारे सबूत नष्ट हो गए. अंत में सीबीआई को केस देकर पल्ला झाड़ लिया गया. यह भी साधारण बात नहीं हैं. यक्ष प्रश्न यह है कि हथियारों से लेकर प्रशिक्षण तक पुलिस को तकनीकी रूप से पिछड़ा रखा जा रहा है जबकि अपराधी हाइटेक होते जा रहे हैं. तुका राम की तरह पुरानी रायफल लिए एके सैंतालीस से लैस आतंकी को पकड़ने के लिए जान की बाजी लगाने की हिमाकत हर पुलिस वाला नहीं कर सकता. मुम्बई हमले के बाद नेशनल इनवेस्टिगेटिव एजेंसी का गठन तो हो गया, पर अभी तक एक भी घटना की जाँच उसने शुरू नहीं की. घटना के समय तो सरकार ने बड़ी तेज़ी दिखाई, क्योंकि उस वक़्त चुनाव करीब था और जनता में आक्रोश बहुत ज्यादा था, उसके बाद उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया.

सी बी आई को इस्तेमाल करने का आरोप लगभग सभी सरकारों पर लग चुका है लेकिन उसको मजबूत करने के लिए आज तक कोई विशेस प्रयास नहीं हुआ. आज जिस तरह से अपराधियों द्वारा अपराध राज्यों की सीमा तोड़ कर अंतर-राज्यीय विस्तार लेता जा रहा है ऐसे में किसी ऐसी जाँच एजेंसी की जरूरत पर बहस को दबाया जा रहा है जो अमेरिकी संस्था एफ बी आई की तर्ज़ पर बिना राज्यों की सहमति के जाँच को आगे बढ़ा सके और सबूत नष्ट होने से बचाया जा सके . ऐसा क्यों किया जा रहा है किसी से छिपा नहीं है. अब समय आ गया है जब यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि न्याय जल्द मिले और लोक सेवक द्वारा किए गए अपराध के लिए ज्यादा दंड दिया जाय, साथ ही उनके निपटारे के लिए विशेष न्यायालय बनें और जो कम समय मे विचारण कर सकें, जिससे सामान्य जनता से लेकर राजनेताओं तक यह संकेत पहुंचे कि त्वरित और समुचित न्याय होने की सम्भावना है और न्यायिक प्रक्रिया में आम जनता के विश्वास को बहाल किया जा सके.

चाहे राज्य की पुलिस, जो अपने थाने की सीमा से बाहर किसी संग्येय अपराध की जाँच से भी पल्ला झाड़ लेती है और प्राथमिकी भी दर्ज़ करना मुनासिब नहीं समझती, वह पुलिस कई राज्यों की सीमाओं को प्रभावित करने वाले अपराधों के साथ कैसी जाँच करेगी,कहने लायक नहीं है. कुछ अपराध जैसे नशीले पदार्थों की तस्करी,फर्ज़ी नोटों का आतंक-वादियों द्वारा प्रचलन और आतंकी हमलों की जाँच जिनके तार विदेशों से जुड़े हैं और ज़ाली क्रेडिट कार्ड और साइबर अपराध जिनके जाँच का तकनीकी प्रशिक्षण राज्य की पुलिस को प्राप्त नहीं है और उनकी जाँच में लगने वाले आधुनिक उपकरण भी उपलब्ध नहीं हैं, कैसे करेगी यह सोंचने की जरूरत हमारे राजनेताओं को महसूस नहीं होती,क्योंकि सुरक्षा में दिन रात कमांडोज और विशेस रूप से प्रशिक्षित एस पी जी लगी रहती है,जिसे मुम्बई जैसे आतंकी हमलों की सूरत में भी त्वरित गति से राहत के लिए नहीं भेजा जा सकता,तो आम जनता की सुरक्षा की क्या गारंटी है? इतने पर भी यदि आज हमारे राजनेता यदि ऐसे कानून और विशेस पुलिस की जरूरत नहीं समझते तो यह साफ हो जाता है कि वे किस सीमा तक आम जनता के हितों की चिंता करते हैं ?

प्र्श्न यह है कि कब तक हम सामान्य हत्या और अपराध जो कि भावावेश और आत्म –नियंत्रण के आभाव मे हो जाते हैं और व्यावसाइक अपराधियों द्वारा धन उगाही के लिए किए गए आर्थिक अपराध को, हम कब तक एक ही चश्में से देखते रहेंगे? उनको साबित करने के लिए साक्ष्य की एक जैसी प्रक्रिया रख कर हम गलती कर बैठते हैं, क्योकि एक तरफ जो सामान्य रूप से ऐसा व्यक्ति है, जिसके विरुद्ध अन्य कोई आपराधिक मामला दर्ज़ नहीं है और दूसरी तरफ, जिसके ऊपर दर्जनों संगीन अपराधों की लम्बी सूची है और जिनमें भय के कारण साक्षी के साक्ष्य मिलने की बहुत ही कम सम्भावना है, दोनों को एक ही चश्में से देखकर निर्दोष मानकर विचारण करना और जमानत पर रिहा करना क्या सही है? मकोका और टाडा जैसे कनूनों की जरूरत आज नहीं है, आज यह कहना गलत है और उसका इस आधार पर विरोध करना कि मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हैं और भी गलत है. मानवाधिकार का क्या अर्थ है? प्रश्न यह है कि क्या हज़ारों लोगों की जो कि निर्दोष थे और आतंकी हमले के शिकार हुए, हत्या करने वाले दरिन्दे के मानवाधिकारों की वकालत करने वाले लोग आतंक वादियों को किस तरह से मानव की परिभाषा में लाते हैं, जो दानव का काम कर रहे हैं,क्या उनकी दृष्टि में आतंक-वादियों की गोलियों के शिकार हुए उन हज़ारों लोगों का भी कोई मानवाधिकार है भी कि नहीं? आज यह बात साफ होनी चाहिए कि विधाइका मे बैठे लोग किसकी वकालत कर रहे हैं? किसका मानवाधिकार और उसकी कोई सीमा भी है कि नहीं? आज समलैंगिक सीना ठोंक कर जिस मानवाधिकार की दुहाई दे रहे हैं उसे किसी भी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता है . माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय जिस परिप्रेक्ष्य में निर्णय दिया उसे ध्यान में रख कर ही उसकी व्याख्या करनी चाहिए .उसका विचार विन्दु उन निर्दोश अवयस्क बच्चों के मानवाधिकारों की रक्षा करना था जो कि यौन शोशण के शिकार हुए हैं उन्हें धारा 377 का अपराधी मान कर व्य्वहार करना उनके सम्वैधानिक और मूल अधिकारों का उल्लंघन करना है जो मानवाधिकारों का हनन है और ऐसी धारा को बने रहने का कोई औचित्य नहीं है .किंतु यह भी सच है कि ऐसी किसी धारा का भी होना जरूरी है जो उन लोगों के अधिकारों की रक्षा करे जिनकी इच्छा के विरुध जबरन अप्राक्रितिक मैथुन का शिकार बनाया जाय .अन्यथा पुरुशों की इज़्ज़त भी खतरे में पड़ जाएगी और उन्हें एफ आई आर दर्ज़ कराने के लिए कोई धारा नहीं मिलेगी .

अभी हाल में टाइम्स ऑफ इन्डिया में एक सर्वे का आँकणा छपा था जिसमें 84 % लोगों ने मौज़ूदा पुलिस व्यवस्था की कार्य प्रणाली की निष्पक्षता पर अविश्वास व्यक्त किया था. यह कितनी गम्भीर बात है और इसे गम्भीरता से न लेना और भी गम्भीर बात है, जिसे मौज़ूदा सरकार गम्भीरता से लेने की जरूरत नहीं समझती क्योंकि उनकी सुरक्षा के लिए एस पी जी और जेड कटेगरी की सुरक्षा मिली हुई है.ढेर सारे कमीशनों की सिफारिशों की अनदेखी करते हुए वर्तमान पुलिस व्यवस्था में सुधार किए बिना उसी के भरोसे जनता को छोड़ देना क्या मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं है? आज हमारे सामने यक्ष प्रश्न यह है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधे ? यदि हम यह अपेक्षा रखते हैं कि बिल्ली खुद घंटी लाकर हमें देगी और कहेगी कि इसे हमारे गले में बाँध दो तो यह सपना नहीं पूरा होने वाला .
-विनय कुमार ओझा