Monday, December 29, 2008
सन्जीवनी क्या है ?
Monday, December 22, 2008
आंधियों में दिए हम जलाते रहे
नीद अँधियारों की हम उड़ाते रहे ॥
बस उन्ही को ही मंज़िल मिली दोस्तों -
ठोकरें खाके जो मुस्कराते रहे॥
ये न पूँछो कि कैसे कटी ज़िन्दगी-
अश्क पीते रहे ग़म को खाते रहे॥
गर न पाया कभी काट खाया उन्हें -
दूध साँपों को जो थे पिलाते रहे॥
सोंचिए प्यास उनकी बुझी किस तरह-
उम्र भर जो पिए और पिलाते रहे॥
नोट की गद्दियाँ रख के हाथों में वो-
मेरे ईमान को आजमाते रहे॥
उन दीयों से अंधेरों की होगी सुलह-
जो सदा रौशनी बेंच खाते रहे ॥
दुनिया ने उनको कुछ भी न बनने दिया -
सर हर एक देर पे जो थे झुकाते रहे॥
इस तरह से भी 'स्नेहिल' से क्यों रूठना -
मुडके देखा भी ना हम बुलाते रहे॥
Friday, October 10, 2008
दोहे
शेख जाहिरा देखती कठिन न्याय का खेल।
सच पर जोखिम जान की झूठ कहे तो जेल॥
खल नायक सब हैं खड़े राजनीति में आज।
जननायक किसको चुनें दुविधा भरा समाज।।
क्या हिंदू क्या मुसलमाँ ली दंगो ने जान।
गिद्ध कहे हैं स्वाद में दोनो मॉस समान॥
जिसको चक्की पीसनी थी जाकरके जेल।
आज वही हैं खींचते लोकतंत्र की रेल॥
बाल सुलभ निद्रा और बालसुलभ मुस्कान।
बच्चों के अतिरिक्त दे संतों को भगवान॥
एक गधा घुड़दौड़ में बाजी ले गया मार
बेचारा घोड़ा हुआ आरक्षण का शिकार॥
लोकतंत्र की गाय को दुह कर कर दी ठाँठ ।
जनसेवी माखन भखें, जन को दुर्लभ छाँछ॥
- विनय ओझा स्नेहिल
Sunday, August 10, 2008
कता
हर एक मुद्दे पर मुखर दिखाई देते हैं ॥
दिलों में उनके सियासत के ऐब हैं सारे -
जो नैन -ओ नक्श से सुंदर दिखाई देते हैं ॥
'विनय ओझा 'स्नेहिल'
Tuesday, June 24, 2008
आज का शेर
जाने किस थैले में दहशतगरों का रक्खा बम निकले ।
-विनय ओझा 'स्नेहिल'
Tuesday, April 8, 2008
कता
कहते हैं वो इन मुद्दों पर सवाल मत करो।
इन छोटी छोटी बातों का ख्याल मत करो॥
कोई नहीं है दूध का धुला हुआ यहाँ-
एक दूसरे के दाग़ पर बवाल मत करो॥
-विनय ओझा स्नेहिल
Thursday, March 27, 2008
क्या कहें ?कैसे कहें?
सिर पे सच्चाई के अब लटकी हुई तलवार है ॥
सोंच में बैठा हुआ मांझी करे तो क्या करे?
बिक चुकी तूफ़ान के हाथों सभी पतवार है॥
जिन दियों से रोशनी मिलती नहीं वो फोड़ दो-
उन दियों को ताख पर रखना ही अब बेकार है॥
खौफ से इस घर का मलिक हो गया है बेदखल-
जिसका कब्जा है वो इक सरकश किराएदार है॥
दोस्तो स्नेहिल बिना बुनियाद कुछ कहता नहीं -
ग़र शहादत चाहते हो पेश यह अखबार है ॥
-विनय ओझा स्नेहिल
Tuesday, February 19, 2008
कविता
मुझे मालूम न था ऐसे भी दिन आएंगे।
रहनुमा राह्जनों के शिविर में लाएंगे ॥
बढ़ा के दोस्ती का हाथ वे हमारी तरफ -
हमारे दुश्मनों से हाथ भी मिलाएँगे॥
सियाह रात भी रोशन हो चाँदनी जैसी-
दिए हम आस के पलकों पे यूँ जलाएँगे॥
घर पे रह जाएगा मालिक भी हाथ मलता हुआ-
चमन के माली ही फल लूट के खा जाएँगे॥
फिर भी ये है गुमाँ चमन हरा भरा होगा-
शर्त ये है इसे अपना लहू पिलाएँगे॥
कि नाउम्मीदी की तपिश ने जिनको सोख लिया-
ख़ुशी के सपने उन आँखों मे झिल्मिलाएंगे ॥
मुझे मुश्किल मे देख कर जो खुश होते थे कभी-
मेरी खुशियों को देख कर वे तिल्मिलाएंगे ॥
-विनय ओझा 'स्नेहिल '
Monday, January 7, 2008
ग़ज़ल
इस तरह छाया हुआ है उनपे गद्दी का खुमार ॥
अब दुकानों से उधारी दूर की एक बात है-
जब बगल वाले नहीं देते हैं अब हमको उधार ॥
लाँघ पाना या गिरा पाना जिसे मुमकिन नहीं -
हर दिलों के दरमियाँ नफरत की है ऊँची दिवार॥
सैकड़ों बगुलों ने मिल घेरा है एक दो हंसों को-
लगता नामुमकिन है लाना अब सियासत में सुधार॥
खुद की कुर्बानी का जज्बा गुम गया जाने कहाँ-
इस शहर में हर कोई है लूटने को अब तयार॥
-विनय ओझा 'स्नेहिल '