क्या कहें कैसे कहें कुछ कहना भी दुश्वार है ।
सिर पे सच्चाई के अब लटकी हुई तलवार है ॥
सोंच में बैठा हुआ मांझी करे तो क्या करे?
बिक चुकी तूफ़ान के हाथों सभी पतवार है॥
जिन दियों से रोशनी मिलती नहीं वो फोड़ दो-
उन दियों को ताख पर रखना ही अब बेकार है॥
खौफ से इस घर का मलिक हो गया है बेदखल-
जिसका कब्जा है वो इक सरकश किराएदार है॥
दोस्तो स्नेहिल बिना बुनियाद कुछ कहता नहीं -
ग़र शहादत चाहते हो पेश यह अखबार है ॥
-विनय ओझा स्नेहिल
Thursday, March 27, 2008
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3 comments:
बहुत खूब.
वाह, अति उत्तम.
सोंच में बैठा हुआ मांझी करे तो क्या करे?
बिक चुकी तूफ़ान के हाथों सभी पतवार है॥
bhut khub likhate rhe.
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