नहीं मिलती मंज़िल
बैठ कर सपनों के
उड़न-खटोलों पर ।
नहीं मिलती मंज़िल -
बैठ कर प्रतीक्षा करने से
सघन कुञ्ज की शीतल छाया में ,
बल्कि इसके लिए
चलना पड़ता है निरंतर
कांटो भरे पथ पर
पलकों पर लिए
आशा के दीप
उपेक्षा कर
पैर के छालों को ॥
-विनय ओझा स्नेहिल
Monday, September 24, 2007
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2 comments:
चलना पड़ता है निरंतर
कांटो भरे पथ पर
पलकों पर लिए
आशा के दीप
उपेक्षा कर
पैर के छालों को ॥
सश्क्त विचार। बहुत उत्कृष्ट रचना।
*** राजीव रंजन प्रसाद
चलना पड़ता है निरंतर
कांटो भरे पथ पर
पलकों पर लिए
आशा के दीप
उपेक्षा कर
पैर के छालों को ॥
-बहुत सुन्दर विचार एवं सीख देती रचना. बधाई.
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