मुझे मालूम न था ऐसे भी दिन आएंगे।
रहनुमा राह्जनों के शिविर में लाएंगे ॥
बढ़ा के दोस्ती का हाथ वे हमारी तरफ -
हमारे दुश्मनों से हाथ भी मिलाएँगे॥
सियाह रात भी रोशन हो चाँदनी जैसी-
दिए हम आस के पलकों पे यूँ जलाएँगे॥
घर पे रह जाएगा मालिक भी हाथ मलता हुआ-
चमन के माली ही फल लूट के खा जाएँगे॥
फिर भी ये है गुमाँ चमन हरा भरा होगा-
शर्त ये है इसे अपना लहू पिलाएँगे॥
कि नाउम्मीदी की तपिश ने जिनको सोख लिया-
ख़ुशी के सपने उन आँखों मे झिल्मिलाएंगे ॥
मुझे मुश्किल मे देख कर जो खुश होते थे कभी-
मेरी खुशियों को देख कर वे तिल्मिलाएंगे ॥
-विनय ओझा 'स्नेहिल '
5 comments:
सियाह रात भी रोशन हो चाँदनी जैसी-
दिए हम आस के पलकों पे यूँ जलाएँगे॥
सर इस शेर का जवाब नहीं है. बधाई.
bahut satya kathan,aaj ki duniya mein yahi hota hai bas.dost bhi kahnjar lekar ghumte hai.
फिर भी ये है गुमाँ चमन हरा भरा होगा-
शर्त ये है इसे अपना लहू पिलाएँगे॥
बहुत खूब.
सोंच में बैठा हुआ मांझी करे तो क्या करे?
बिक चुकी तूफ़ान के हाथों सभी पतवार है॥
gahare bhav v gahari rachana ke liye badhai.
Vinay jee....
aaj pahli baar aapki kavita parhi....
aaj ki haqeeqat ko bahut khoobsurti se benaqaab kiya hai.
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