यह आत्म मित्र और आत्म शत्रु,
दोनो ये तेरे तन मन ही ।
चाहे सुख के सोपान चढो या
दुख के सागर मे कूदो ॥ 1॥
दुख की सुगंध मन मोहक है,
धर वेष सुखो का आते है ।
तन मन की प्यास बुझाने को-
बहु भांति हमें ललचाते हैं ॥
इस मृग मरीचिका को देखो-
कुछ देर ठहर समझो बूझो ॥ 2॥
मदिरालय के रंगीन कलश-
बस देख इसे पाने मत जा ।
चखना के दाने डाल रहा ,
ललचाकर तू खाने मत जा ॥
यह जाल बिछा कर बैठा है –
सैयाद किधर हमसे पूछो ॥ 3॥
इन इठलाती रंगीन तितलियो-
के पीछे तुम मत भागो ।
विष बुझी कटार हैं सोने की –
इन्हे बाहु- पाश मे मत बांधो ॥
लटके हुए लाल विषाक्त सेव –
इन्हे खाने को तुम मत कूदो ॥4॥
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