Sunday, October 27, 2019

नव-गीत




यह आत्म मित्र और आत्म शत्रु,
दोनो ये तेरे तन मन ही ।
चाहे सुख के सोपान चढो  या
दुख के सागर मे कूदो ॥ 1॥

दुख की सुगंध मन मोहक है,
धर वेष सुखो का आते है ।
तन मन की प्यास बुझाने को-
बहु भांति हमें ललचाते हैं ॥
इस मृग मरीचिका को देखो-
कुछ देर ठहर समझो बूझो ॥ 2॥

मदिरालय के रंगीन कलश-
बस देख इसे पाने मत जा ।
चखना के दाने डाल रहा ,
ललचाकर तू खाने मत जा ॥
यह जाल बिछा कर बैठा है –
सैयाद किधर हमसे पूछो ॥ 3॥

इन इठलाती रंगीन तितलियो-
के पीछे तुम मत भागो ।
विष बुझी कटार हैं सोने की –
इन्हे बाहु- पाश मे मत बांधो ॥
लटके हुए लाल विषाक्त सेव –
इन्हे खाने को तुम मत कूदो ॥4॥



जीने की तैयारी कर ली ।
दुख से रिश्तेदारी कर ली ॥
तेरी गली मै कैसे आऊ ।
पास पडोस उधारी कर ली ॥
खलनायक अब नायक होगा ।
कैसी रायशुमारी कर ली ॥
एक छटाक भी धान न पाया ।
बारम्बार पुवारी कर ली ॥
दुख में सबने दूर से देखा।
सुख में भागीदारी कर ली ॥
दिया जला आया मंदिर में
सब राहे अधियारी कर ली ॥
मेरे बाद इस देश का क्या हो।
सोंच के तबियत भारी कर ली ॥


Tuesday, October 15, 2019


जिस काम में मन लगता है, वह आसान सा लगता है।
वर्ना छोटा काम भी, अनुसंधान सा लगता है ॥
सुख की बूंदे पडी जो मन पर, गर्म तवे सी भाप बनी-
दुख मे डूबे हृदय को सुख भी, मरु उद्यान सा लगता है ॥
मजा आये जब कठिन समीकरण, मे आ जाये इति सिद्धम –
वर्ना हल्का गुणा-भाग भी भिन्न समान सा लगता है ॥
रट्टा मार गया बालक का, रूप एक ही घंटे मे –
विनय कुमार मुझको तो, पणिनि की संतान सा लगता है ॥
तंत्र साधना करने वाले, शम्शानो मे फिरते हैं –
अंधियारे मे बाग हमे तो कब्रिस्तान सा लगता है ॥
कुशल-छेम पूंछा, खा- पीकर, अपने घर को निकल लिया-      
तेरे शहर में दोस्त भी 'स्नेहिल', एक मेहमान सा लगता है ॥