अब सुनाई ही नहीं देती है जनता की पुकार।
इस तरह छाया हुआ है उनपे गद्दी का खुमार ॥
अब दुकानों से उधारी दूर की एक बात है-
जब बगल वाले नहीं देते हैं अब हमको उधार ॥
लाँघ पाना या गिरा पाना जिसे मुमकिन नहीं -
हर दिलों के दरमियाँ नफरत की है ऊँची दिवार॥
सैकड़ों बगुलों ने मिल घेरा है एक दो हंसों को-
लगता नामुमकिन है लाना अब सियासत में सुधार॥
खुद की कुर्बानी का जज्बा गुम गया जाने कहाँ-
इस शहर में हर कोई है लूटने को अब तयार॥
-विनय ओझा 'स्नेहिल '
Monday, January 7, 2008
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5 comments:
लाँघ पाना या गिरा पाना जिसे मुमकिन नहीं -
हर दिलों के दरमियाँ नफरत की है ऊँची दिवार॥
सच्ची बात...बहुत खूब...वाह.
नीरज
हकीकत को बयाँ करने वाली रचना ।
खुद की कुर्बानी का जज्बा गुम गया जाने कहाँ-
इस शहर में हर कोई है लूटने को अब तयार॥
बहुत खूब !
बहुत ही बेहतरीन गजल है।बधाई स्वीकारें।
खुद की कुर्बानी का जज्बा गुम गया जाने कहाँ-
इस शहर में हर कोई है लूटने को अब तयार॥
bahut khuub..kaafi dino baad aapko padhaa..shukriya
तेरी जुबान से निकली तो सिर्फ नज्म बनी,
हमारे हाथ में आई तो एक मशाल हुई।
बड़ा लगाव है इस मोड़ से निगाहों को,
कि सबसे पहले यहीं रोशनी हलाल हुई।
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