Friday, November 2, 2007

जिंदगी

ज़िन्दगी क्यों उदास लगती है ।
मौत जब आस- पास लगती है ॥

मुझसे वह बिन मिले नहीं जाता -
कुछ तो दिल में खटास लगती है॥

कितने अर्सों से देखता हूँ उसे -
फिर भी हर लम्हा ख़ास लगती है॥

जितनी कोशिश करो बुझाने की -
उतनी ही ज्यादा प्यास लगती है॥

मर के भी आंख थी खुली उसकी -
उनको मेरी तलाश लगती है ॥

- विनय ओझा "स्नेहिल "

6 comments:

बालकिशन said...

वाह वकील साब ये भी खूब रही अब अगर मौत आस पास होगी तो जिंदगी उदास नही तो क्या बिंदास लगेगी.ये शेर समझ नही आया बाकी पुरी ग़ज़ल उम्दा है.

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

कितने अर्सों से देखता हूँ उसे -
फिर भी हर लम्हा ख़ास लगती है॥

किसकी बात कर रहे हैं?

Divine India said...

क्या बात है ज़नाब…
बेहद उम्दा रचना…।

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बेहतरीन गजल है..

मर के भी आंख थी खुली उसकी -
उनको मेरी तलाश लगती है ॥

Udan Tashtari said...

वाह, बहुत बेहतरीन विनय भाई..

मर के भी आंख थी खुली उसकी -
उनको मेरी तलाश लगती है ॥

--छा गये.

aarsee said...

बहुत सारे भाव उभर रहें हैं