राह में जब जब अँधेरे हो गए ।
रहनुमा मेरे लुटेरे हो गए ॥
बैठते थे फाखते जिस शाख़ पे -
चील और कौओं के डेरे हो गए।।
विनय ओझा 'स्नेहिल '
Tuesday, October 16, 2007
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मित्रों प्रस्तुत है मेरी कुछ कविताएं और कुछ व्यंग्य जो मेरे मन की सहज अभिव्यक्ति हैं, जो मुझे जीवन के उन क्षणों में अनुभूत हुई हैं, जब मन का निर्झर स्वतः रस की धारा से आप्लावित होने लगता है तब उसी को मैनें शब्दों में बाँधने की कोशिश की है। इसमें मैने कितनी सफलता पाई है इसका निर्णय आप स्वयं करें ।
1 comment:
बैठते थे फाखते जिस शाख़ पे -
चील और कौओं के डेरे हो गए।।
--वाह वाह, क्या चित्रण किया है संसद का. बहुत अच्छे बिम्ब उठाये हैं, बधाई.
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