अपनी उम्मीद है दीवार की काई की तरह ।
फिर भी ज़िन्दा है खौफ़नाक सचाई की तरह॥
पेट घुटनों से सटा करके फटी सी चादर -
ओढ़ लेता हूँ सर्दियों में रजाई की तरह ॥
आँधियाँ गम की और अश्कों की उसपर बारिश -
साँस अब चलती है सावन की पुरवाई की तरह ॥
जाने यह कौन सी तहज़ीब का दौर आया है-
बात अब अच्छी भी लगती है बुराई की तरह ॥
सारी जनता तो उपेक्षित है बरातीयों सी -
और नेताओं की खातिर है जमाई की तरह ॥
- विनय ओझा ' स्नेहिल '
Tuesday, October 9, 2007
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3 comments:
अपनी उम्मीद है दीवार की काई की तरह ।
फिर भी ज़िन्दा है खौफ़नाक सचाई की तरह॥
पेट घुटनों से सटा करके फटी सी चादर -
ओढ़ लेता हूँ सर्दियों में रजाई की तरह ॥
बढ़िया गज़ल
पेट घुटनों से सटा करके फटी सी चादर -
ओढ़ लेता हूँ सर्दियों में रजाई की तरह ॥
--बहुत बढ़िया. दाद कबूलें.
ये राजनीति की बात हो रही है
कुछ अपने दुख की
वैसे सबकुछ मिलाजुला है
अच्छी गज़ल!
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