Thursday, March 3, 2022

कता

कैसी तालीम है तहज़ीब में ढलना नहीं सीखा।चाँद की सैर कर आए ज़मीं पर चलना नहीं सीखा।।                                       सियासत के बगीचे में चील कौवों का डेरा है। लगाए पेड़ क्यों ऐसे जिसने फलना नहीं सीखा।।

Sunday, October 27, 2019

नव-गीत




यह आत्म मित्र और आत्म शत्रु,
दोनो ये तेरे तन मन ही ।
चाहे सुख के सोपान चढो  या
दुख के सागर मे कूदो ॥ 1॥

दुख की सुगंध मन मोहक है,
धर वेष सुखो का आते है ।
तन मन की प्यास बुझाने को-
बहु भांति हमें ललचाते हैं ॥
इस मृग मरीचिका को देखो-
कुछ देर ठहर समझो बूझो ॥ 2॥

मदिरालय के रंगीन कलश-
बस देख इसे पाने मत जा ।
चखना के दाने डाल रहा ,
ललचाकर तू खाने मत जा ॥
यह जाल बिछा कर बैठा है –
सैयाद किधर हमसे पूछो ॥ 3॥

इन इठलाती रंगीन तितलियो-
के पीछे तुम मत भागो ।
विष बुझी कटार हैं सोने की –
इन्हे बाहु- पाश मे मत बांधो ॥
लटके हुए लाल विषाक्त सेव –
इन्हे खाने को तुम मत कूदो ॥4॥



जीने की तैयारी कर ली ।
दुख से रिश्तेदारी कर ली ॥
तेरी गली मै कैसे आऊ ।
पास पडोस उधारी कर ली ॥
खलनायक अब नायक होगा ।
कैसी रायशुमारी कर ली ॥
एक छटाक भी धान न पाया ।
बारम्बार पुवारी कर ली ॥
दुख में सबने दूर से देखा।
सुख में भागीदारी कर ली ॥
दिया जला आया मंदिर में
सब राहे अधियारी कर ली ॥
मेरे बाद इस देश का क्या हो।
सोंच के तबियत भारी कर ली ॥


Tuesday, October 15, 2019


जिस काम में मन लगता है, वह आसान सा लगता है।
वर्ना छोटा काम भी, अनुसंधान सा लगता है ॥
सुख की बूंदे पडी जो मन पर, गर्म तवे सी भाप बनी-
दुख मे डूबे हृदय को सुख भी, मरु उद्यान सा लगता है ॥
मजा आये जब कठिन समीकरण, मे आ जाये इति सिद्धम –
वर्ना हल्का गुणा-भाग भी भिन्न समान सा लगता है ॥
रट्टा मार गया बालक का, रूप एक ही घंटे मे –
विनय कुमार मुझको तो, पणिनि की संतान सा लगता है ॥
तंत्र साधना करने वाले, शम्शानो मे फिरते हैं –
अंधियारे मे बाग हमे तो कब्रिस्तान सा लगता है ॥
कुशल-छेम पूंछा, खा- पीकर, अपने घर को निकल लिया-      
तेरे शहर में दोस्त भी 'स्नेहिल', एक मेहमान सा लगता है ॥

Saturday, November 3, 2018

मै मर रहा हूँ जीने की दुआ मत देना ।
बुझते जज्बात के शोलों को हवा मत देना ॥
दफ्न हैं राज़ कई अब भी मेरे सीने में-
मेरे मरने पर कहीं मुझको जला मत देना ॥
मुश्किलों को भी होगी मुश्किल रहके साथ मेंरे-
भूल कर भी उन्हें मेरे घर का पता मत देना ॥
मुझको बीमारी है ये नीद में भी चलता हूँ-
भूल कर  भी कही मुझे छत पर सुला मत देना ॥
ज़िंदगी अपनी सजाओ तो सजाते ही रहो-
इस कदर भी उसे इतना भी सज़ा मत देना ॥
अपनी आदत है पिलाने के बाद पीता हूँ-
गलती से प्याले मे कुछ मेरे मिला मत देना ॥
भूल जाता है वह खुद अपनी हदें भी स्नेहिल-

अपनी महफिल में कहीं उसको पिला मत देना ॥ 

Thursday, July 17, 2014

दोहे

चावल जामत नाहिं है, जामत केवल धान ।
छिल्का उतरा काम का, अक्षत होवे ज्ञान ।। 

दृष्टि आप की सृष्टि है, जिस पर मन की छाप । 
घनी अँधेरी रात में, रस्सी दीखै साँप ।। 

Tuesday, October 23, 2012

नई ग़ज़ल

  हर बात में कहते हैं वो मुझसे कि  तुम्हे क्या ?
माली चमन को लूट के खाए तो तुम्हे क्या ?

सुनवाई हुई पूरी सज़ा बरकरार है -
फांसी पे न हम उसको चढ़ाएं तो तुम्हे क्या?

ज़म्हूरियत में चुनना सिर्फ  सबका फ़र्ज़ है -
 रहज़न उम्मीदवार है तो इससे तुम्हे क्या ?

दर दर पे सिर झुकाके है सेवा का व्रत लिया-
फिर पांच साल हाथ न आयें तो तुम्हे क्या ?

मेरे ही बुजुर्गों ने बसाई थीं बस्तियाँ -
मैं आग अगर उनको लगाऊं तो तुम्हे क्या  ?

इस देश का पैसा तो विदेशों में जमा है -
इस देश में वापस नहीं लाएं तो तुम्हे क्या ?

मेरा वज़ीरेआज़म तो ईमानदार है-
आरोपों की न जांच कराए तो तुम्हे क्या  ?

विनय ओझा 'स्नेहिल'