Monday, October 5, 2009

जनता बनाम पशु – एक व्यंग्य

भारतीय लोक तंत्र में कार्यपालिका और न्यायपालिका की समझ में थोड़ा फर्क है। न्यायपालिका बार बार अपने निर्णयों में कहती रहती है कि संविधान के अनुच्छेद 21 में जीवन के अधिकार का आशय पशुवत जीवन से नहीं है, अपितु मनुष्य के प्रतिष्ठा-पूर्ण जीवन का अधिकार है। जबकि कार्यपालिका की समझ कुछ अलग हट कर है। वह क्या है इसे खुल कर बताने की आवश्यकता नहीं है।

केन्द्र सरकार में एक मंत्री जी हैं, जो यथार्थवादी हैं। जब आम चुनाव चल रहे थे तब दूसरे-तीसरे दिन उनके लेख “टाइम्स ऑफ इन्डिया” में छपते थे,तब मुझे यही लगता था कि चुनाव बाद इस समाचार पत्र को टेक ओवर कर लेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उनके अनुसार हवाई जहाजों के ‘एकोनामी क्लास’ मे यात्रा करना भेड-बकरियों के साथ यात्रा करने के समतुल्य है, इसी लिए ‘एकोनामी क्लास’ को उन्होंने ‘कैटल-क्लास’ की संग्या दे डाली।वे यथार्थ-वादी हैं उन्हें पता है कि भारत में आम जनता के जीवन और पशुओं के जीवन में कोई विशेष अंतर नहीं है। जो पाँच सितारा होटलों में महीनों पार्टी के खर्च पर रहा हो और बिजनेस क्लास में हवाई यात्राओं का आनंद उठाने का आसक्त हो गया हो, उसे ‘एकोनामी क्लास’ ‘कैटल-क्लास’ लगेगा ही, और साधारण होटल का खाना पशुओं के स्तर का खाना लगेगा ही। परंतु सच्चाई यह है कि वह ठहरे एक यथार्थवादी लेखक और उन्हें राजनेता बने कुछ ही माह ही हुए हैं, अभी तक उन्होंने यह नहीं सीखा कि राजनीति में सोंचने के कुछ और बोलने के कुछ और ही विचार और स्वर होते हैं। यदि उन्हें उलट दिये जाँय तो फूलों की जगह जूतों की माला पहननी पड़ेगी। जैसे जनता भेड़ है, उसकी अपनी कोई सोंच और स्वतंत्र बुद्धि नहीं होती। उसे चारा दिखाकर भेड़-बकरियों की तरह कहीं भी और किसी भी दिशा में हाँका जा सकता है। उसे शराब, कम्बल और पैसे बाँट कर अपने दल को मत देने के लिए आकर्षित किया जा सकता है। फिर पाँच वर्ष तक उसे अंगूठा दिखा कर जोंक की तरह उसकी जन-कल्याणकारी योजनाओं का फंड चूसा जा सकता है। यदि यही विचार जनता के सम्मुख प्रकट कर दिए जाएं तो पिटाई सुनिश्चित है। जनता पिल पड़ेगी यह कहते हुए कि देखो साला जनता को भेड़ कह रहा है,जोंक की तरह जनता का खून चूसने की बात कह रहा है, पीटो साले को। फिर जनता शुरू। अभी पिछले आम चुनाव में तो राज-नेताओं पर जूते फेंकने की शुरुवात हो चुकी है,अगले आम चुनाव का क्या भविष्य है ज्योतिषी ही बता सकता है। इसी आशंका के चलते उसे ज़ेड कैटेगरी की सुरक्षा की आवश्यकता पड़ती है।क्योंकि जनता तो तैयार बैठी है,उन्हें भी पता है कि कैसे कैसे कर्म किए हैं हमने।
प्रतिष्ठा जनता की नहीं, उसकी सेवा करने की झूठी कसम खाने वाले जनसेवियों की ही होती है। आम आदमी को अचानक कहीं जाना है, रेल की शायिका में सीट नहीं मिली,जाना जरूरी है, सामान्य डिब्बे मे यात्रा कर ली। जब जरूरत पड़ी बस की यात्रा कर ली । ज्यादा मजबूरी आई, आटो-रिक्शा से यात्रा कर ली और 80 रूपए बनते थे 160 रूपए देने पड़े फिर भी उसकी प्रतिष्ठा नहीं घटती, किंतु जन-सेवी यदि बस में यात्रा कर लेगा तो उसकी प्रतिष्ठा घट जाएगी। आज तक मैंने किसी जन-सेवी को बस में यात्रा करते नहीं देखा। पता नहीं इस जीवन में ऐसा सुखदायी दृश्य देख सकूंगा कि नहीं, संदेह होता है । तभी तो वह खास आदमी है वरना फर्क ही क्या है आम आदमी और खास आदमी में। आदमी तो आदमी ही होता है।उसके भीतर के गुण नहीं, बल्कि उसके संसाधन ही उसे आम और खास बनाते हैं। आम आदमी कितना ही खास काम करे, उसकी कोई पूंछ नहीं होती, बल्कि इसके विपरीत खास आदमी का आम आदमी जैसा काम भी खास बना देता है। जैसे राहुल गांधी खास आदमी हैं, ऐसी बात नहीं कि उनको सुरखाब के पर लगे हुए हैं, उनकी खासियत यह है कि वे राजीव गांधी के बेटे हैं। राजीव गांधी की खासियत यह थी कि वह इन्दिरा गांधी के बेटे थे। उनकी खासियत यह थी कि वह नेहरू जी की बेटी थीं। नेहरू जी की खासियत यह थी कि वह गान्धी जी के खास लोगों में से थे, इस लिए देश के पहले प्रधान-मंत्री बने थे। क्योंकि कांग्रेस में गांधी जी की चलती थी, इसी लिए नेता जी सुभाष चन्द्र बोस को अध्यक्ष चुने जाने के बावज़ूद कांग्रेस की अध्यक्षता से त्यागपत्र देना पड़ा था। अब राहुल गांधी चूंकि खास आदमी हैं उनका हर काम खास बन जाता है। मीडिया वाले कैमरा लेकर उनके पीछे-पीछे भागते रहते हैं । राहुल गांधी रात भर कलावती( जो आम महिला है) के घर में रात भर रुके, उसका दुःख-दर्द महसूस किया। कलावती के साथ खाना खाया तो पता चला कि आम आदमी को किस स्तर का खाना नसीब होता है। आम आदमी के पास भी उनकी तरह स्वाद लेने को जीभ और भरने को पेट होता है, यह और बात है कि वह उनका उपयोग उस तरह नहीं कर पाता जितना कि खास आदमी कर लेता है। यह भी देखा कि कलावती के बच्चे किस स्तर की शिक्षा सरकारी स्कूलों से पा रहे हैं, जिनका स्तर उसी तरह न सुधारे जा सकने योग्य है जिस प्रकार किसी राजनेता का चरित्र । यह सब अनुभव लेने के बाद कुछ आर्थिक सहायता (भिक्षा) दे कर विदा हो लिये। कलावती के दुःख की कथा उन्होंने संसद में सुनाई जो तत्कालीन प्रधान मंत्री के विश्वास मत परीक्षण में सहानुभूति बटोरने के काम आई और मीडिया ने तेज़ी से खबर को लपका, जिससे कलावती आम महिला से खास महिला बन गयी। कलावती और भी खास बन जाती यदि उसे कांग्रेस से टिकट मिल जाता। किंतु राहुल गांधी का उद्देश्य उसे इतना खास बनाने का नहीं था, ऐसी गलती कांग्रेस पार्टी थोड़े न करेगी। अरे ऐसी गलती कोई भी राजनीतिक पार्टी नहीं करेगी। यही तो राजनीति का सिद्धांत है। किसी कमज़ोर को इतना ताकतवर मत बनने दो कि वह तुम्हारी छाती पर चढ़ कर हिसाब किताब मांगने लगे। ऐसे ही एक दिन राहुल गांधी अचानक राजधानी से लापता हो गए, पता चला कहीं किसी गाँव में आम मजदूरों की तरह तसला सिर पर रख कर मिट्टी ढो रहे हैं और उनके पीछे-पीछे मीडिया वाले कैमरा लेकर उनके श्रमदान का लाइव टेलीकास्ट कर उनके गांधी-वादी होने की सार्वजनिक घोषणा कर रहे हैं। क्योंकि खास आदमी आम आदमी जैसा काम कर रहा है। कितना दुर्लभ होता है भारत में ऐसा दृश्य।

आज़ादी के बाद से सभी राज-नेताओं ने एक मुहिम चलाई– ‘प्रॉस्पेरिटी ड्राइव’। गरीबी हटाओ का दिखावटी नारा देकर सभी ने अपनी गरीबी हटा ली। जनता जस की तस। अभी तक जनता की गरीबी हटाने की बारी ही नहीं आई । जिसे जनता गरीबी हटाने और समृद्धि लाने वाली सरकार मानती रही वह अपने को समृद्ध बनाने की मुहिम या ‘प्रॉस्पेरिटी ड्राइव’ चलाती रही। अब जहाँ आम आदमी सूखा,आर्थिक मन्दी और कमर-तोड़ महँगाई, बेरोज़गारी से जूझ रहा है, वहीं राजनेताओं के ऐश्वर्य और सुविधाभोगी जीवन कांग्रेस के भीतर अपराध बोध को जन्म दे रहा है, जिस पूर्वाग्रह के मानसिक उपचार हेतु वह अब ‘आँस्टेरिटी ड्राइव’ चला रही है जिससे उसे जनता का असली शुभ-चिंतक होने का प्रमाणपत्र समझा जाए । किंतु एक यथार्थ-वादी लेखक जो कांग्रेस के ही हैं और मंत्री भी हैं सरकारी कार्य के लिंए हवाई जहाजों में ‘बिजनेस क्लास’ के लिए अधिकृत होते हुए भी ‘आँस्टेरिटी ड्राइव’ के तहत ‘एकोनोमी क्लास’ में यात्रा करने की खिल्ली उड़ाते हैं और उसे कैटल क्लास जिसका आशय पशुओं का दर्ज़ा से है, कहते हैं। यद्यपि उनके इस बयान की हर तरफ बड़ी आलोचना हुई लेकिन मैं उसका अति यथार्थवादी होने के कारण समर्थन करता हूं। भारत की जनता को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है- एक ‘इलाइट क्लास’ और दूसरा ‘कैटल क्लास’। राजनेता, ब्यूरोक्रैट, उद्योगपति, व्यापारी सभी इलाइट क्लास में आते हैं, बाकी सारे लोग ‘कैटल क्लास’ में रखे जा सकते हैं। ऐसे लोगों का जीवन,रहन-सहन,खान-पान,शिक्षा-दीक्षा,यातायात के साधन से लेकर होटल,चिकित्सालय,सुरक्षा व्यवस्था अपने अपने क्लास के हिसाब से रहता है।

अभी कुछ ही दिनों पहले की दिल्ली की एक घटना है। एक 14 वर्षीय बालिका को उसके पड़ोसी ने उसका अपहरण कर लिया। उसके परिवार वालों ने प्राथमिकी दर्ज़ कराने के लिए थाने पर सम्पर्क किया और अपहरण का मुकद्मा कायम करने का बार-बार अनुरोध किया।सम्भवतः अनुरोध के तरीके में कोई कमी रही होगी। कभी–कभी मुकद्मा लिखाने वाले से मुकद्मा न लिखने देने वाला ज्यादा प्रभावशाली सिद्ध होता है।क्योंकि इस देश में मुक्द्मे का अपेक्षित धारा में, अपेक्षित व्यक्ति के विरुद्ध कायम कराया जाना न्याय की वह लड़ाई है, जो न्यायालय से बाहर थाने पर लड़ी जाती है। थानेदार ने अपहरण का मुकद्मा लिखने से मना कर दिया और यह कहा कि मुकद्मा गुमशुदगी का ही दर्ज़ हो सकता है। छः माह तक बहस चलती रही और मुकद्मा गुमशुदगी का ही दर्ज़ हो पाया । लड़की के पिता ने जब हार मान कर उच्च न्यायालय में याचिका दायर की तो उसके हस्तक्षेप पर अपहरण का मुकद्मा कायम हुआ और खोज बीन शुरु हुई। परिणामस्वरूप लड़की लुधियाना से बरामद हुई,तब पता चला कि वह आठ माह की गर्भिणी है। वैसे तो दिल्ली पुलिस की पेट्रोलिंग कार पर लाल और बड़े अक्षरों में लिखा रहता है- “हम बड़ी तेज़ी से काम करते हैं”, बिल्कुल सच, तभी तो उसने छः माह में प्राथमिकी दर्ज़ कर आठ माह में उस 14 वर्षीय बालिका को बरामद कर सक्रियता दिखाई जिसका अपहरण करने वाले का नाम, पता और हुलिया सब मालूम था। अरे यू.पी.पुलिस होती तो बरामद करते करते बच्ची 3-4 बच्चों की माँ बन चुकी होती। उसके पिता जी कहते बेटी, विधाता ने तुम्हारे भाग्य में शायद यही लिखा था, अब होनी को कौन टाल सकता है, अब कौन तुम्हारे साथ विवाह करेगा इसी अपहर्ता को अपना जीवन साथी मान कर शेष जीवन बिताओ। एक चौदह वर्ष की बालिका का पूरा जीवन नष्ट हो गया किंतु उत्तर-दायित्व किसी का नहीं। उस परिवार की कोई प्रतिष्ठा नहीं है क्यों कि वह सामान्य आदमी यानि कैटल क्लास का है । वहीं उसके स्थान पर कोई धनी या राजनैतिक पृष्ठ-भूमि का व्यक्ति होता तो पुलिस विभाग वाले, सारे मीडिया वाले और टी. वी. चैनल आसमान सिर पर उठा लेते और स्थिति यहाँ तक नहीं पहुँचती ।

-विनय कुमार ओझा