Friday, September 25, 2009
“राम तेरी गंगा मैली हो गई” - एक व्यंग्य
तब तक एक वकील साहब का उर्वर मस्तिष्क काम कर गया। उन्होंने कहा कि हर्र लगे ना फिटकिरी रंग भी चोखा होय। गंगा का मैलापन राष्ट्रीय स्तर का है जिसे साफ नहीं किया जा सकता है। दोनों में एक समानता है इस राष्ट्र की राजनीति को जिस तरह साफ नहीं किया जा सकता है, उसी तरह गंगा का मैलापन भी साफ नहीं किया जा सकता है, क्योंकि वही मन के मैले लोग गंगा में फिर डुबकी लगाएंगे और फिर गंगा मैली की मैली। ऐसे में यदि साफ सुथरा व्यक्ति भी गंगा स्नान करेगा तो वह भी मैला हो जाएगा।इस लिए गंगा का मैलापन एक राष्ट्रीय समस्या बन गई है।उसमें स्नान करके स्वच्छ होने के बज़ाय पूरा देश गन्दा हो गया है। इस लिए इसे राष्ट्रीय नदी का दर्जा दे देना चाहिए। इससे अगले आम चुनाव में हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण कांग्रेस के पक्ष में हो जाएगा और यह चुनाव परिणाम भी हमारे पक्ष में हो जाएगा । तभी एक अधिसूचना जारी की गई कि गंगा एक राष्ट्रीय नदी हैं। परिणाम स्वरूप जो हाल राष्ट्रीय पशु चीता, राष्ट्रीय पक्षी मोर का है वही हाल राष्ट्रीय नदी गंगा माता का होने वाला है।
Monday, September 14, 2009
जागो-जागो बचालो वतन साथियों
लुटता माली के हाथों चमन सथियों ।
जिनके पुरखों ने सींचा लहू से चमन,
जिनके हक के लिए बाँधा सिर पर कफन;
उनकी संतानें यूँ धन की प्यासी हुईं-
कर रहीं हैं गबन पर गबन सथियों॥
त्याग बलिदान अब तो किताबों में है,
हर कोई मस्त अपने हिसाबों में है ;
हम न सुधरेंगे ये व्रत है हमने लिया-
पर सुधारें सभी आचरन साथियों ॥
कृष्ण फिर से धरा पर उतर आइये,
हाथ अर्जुन के गांडीव पकड़ाइये;
सारे जनसेवी बनकर दुशाषन यहाँ-
खींचते भारत माँ का बसन साथियों ॥
- विनय कुमार ओझा ‘स्नेहिल’
Wednesday, September 9, 2009
सच का सामना
कुछ दिनों से टेलीविजन पर एक धारावाहिक दिखाया जा रहा है, जिसका नाम है ‘सच का सामना’। जिस प्रकार भारतीय संविधान में राजनेताओं के योग्यता की कोई लक्षमण रेखा नहीं निर्धारित की गई है उसी प्रकार टी.वी. चैनलों पर दिखाए जाने वाले धारावाहिकों के स्तर की कोई सीमा नहीं होती, वे किसी भी स्तर के हो सकते हैं, उसी स्तर का यह भी धारावाहिक है। किंतु जैसा कि बाजार में बिकाऊँ होने की शर्त विवादित होना है, न कि उच्च स्तरीय होना, उसी तरह यह भी धारावाहिक विवाद का केन्द्रविन्दु बनाया गया, जिसकी गूँज संसद तक पहुँची और जिसको सभी टी.वी. चैनलों ने तेज़ी से लपका।संसद में बहस छिड़ गई कि इस पर प्रतिबन्ध लगाना चाहिए।क्यों कि सच का सामना करने से सबसे ज्यादा अगर कोई घबराता है तो राजनेता । जिस दिन सरकार बदलती है उसी दिन विपक्ष को एक साथ ढेरों सच का सामना करने की आशंका सताती है। सत्ता पक्ष के पिटारे से कई ऐसे जाँच के विषय निकलते हैं, जिससे न केवल सत्ता का संतुलन बनाने में सहायता मिलती है बल्कि वे समर्थन जुटाने के भी काम आते हैं । यह आशंका जताई गई कि यदि किसी दिन राजीव खंडेलवाल ने मंत्री या सत्ता पक्ष के राजनेता को सच का सामना करने के लिए तलब कर लिया तो हाथ पाँव फूल जाएंगे । प्रश्न कुछ इस तरह के हो सकते हैं, जैसे कि – स्विस बैंक में किसका पैसा जमा है, और किन लोगों का खाता है?वे किस उद्योग से सम्बन्ध रखते हैं या किसी समर्पित जनसेवी के हैं ? उनके नाम आपको पता हैं किंतु आप बताना नहीं चाह्ते हैं आदि आदि--- उसके बाद पोलीग्राफ टेस्ट के लिए झूठ पकड़ने वाली मशीन के पास लाया जाएगा और मशीन बताएगी कि नेता जी सच बोल रहे हैं या झूठ। किंतु जैसा कि कैबिनेट में एक वकील साहब हैं, जो ऐसे अवसरों पर सलाहकार की भूमिका निभाते हैं या यूँ कहें कि हर सरकार में ऐसे लोगों की आवश्यकता का अनुभव की जा रही है जो सम्विधान की अपने सुविधानुसार व्याख्या कर सकें, उनका दिमाग बहुत तेज़ी से काम करता है। उन्होंने कहा कि डरने की कोई बात नहीं है, स्थिति नियंत्रण में है। टी.वी. चैनलों के पास न्यायालय की शक्ति थोड़े ही है, जो गिरफ्तारी वारंट निकालेंगे और आरोप का सामना करने जाना पड़ेगा। वैसे भी राजनेता के गिरफ्तारी वारंट जारी होने के बावज़ूद उसे न्यायालय में आरोप का सामना करने के लिए प्रस्तुत करना कठिन कार्य होता है तो राजीव खंडेलवाल किस खेत की मूली हैं। वैसे तो हमारे निजी सूत्रो ने इस कार्यक्रम के बारे में कुछ शर्तें तय कर रखी हैं । जैसे कि इस कार्यक्रम में किसी सत्ता पक्ष के राज नेता को सच का सामना करने के लिए नहीं बुलाया जाएगा । यदि गलती से उसे टी वी चैनल पर बुला ही लिया गया है तो उसे एकांत में समझा दिया जायेगा कि सच का सामना न करना दोनों के हित में है। यदि इस पर भी वह नहीं समझता है और लोकतंत्र का सजग प्रहरी होने का दम्भ रखता है, तो उसे कार्यक्रम दिखाने के पहले एक स्पष्टीकरण या माफीनामा दिखाना होगा कि इस घटना का दूर-दूर तक सत्य से कोई सम्बन्ध नहीं है। साथ ही यह भी स्पष्टीकरण देना होगा कि झूठ पकड़ने वाली मशीन नेताओं पर काम नही करती है, इस लिए यह निर्णायक नहीं है। जो नेता कहेगा वही सच माना जाएगा न कि मशीन। क्योंकि मशीन में गड़बड़ी की सम्भावना भी हो सकती है, यह और बात है कि डी.डी.ए. के फ्लैटों के आबंटन के समय कम्प्यूटरीकृत लॉटरी और इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनें निष्पक्षता पूर्वक सन्देह से परे कार्य करती हैं ।
अगली शर्त यह है कि इस कार्यक्रम में सार्वजनिक महत्व के प्रश्नों को नहीं पूँछा जा सकता,क्योंकि जबसे हमें स्वतंत्रता मिली है तब से यह भी स्वतंत्रता मिली है कि किसी राजनेता से सार्वजनिक महत्व के प्रश्न का उत्तर देना या न देना उसके निर्भर है । क्योंकि इससे उसके चरित्र पर आक्षेप आ सकता है और मानहानि का भी मुकद्मा दायर कर सकता है क्यों कि वह न्याय का आर्थिक भार उठाने मे भी सक्षम है। किंतु अन्य लोगों से चरित्र पर आक्षेप लगाने वाले प्रश्न भी पूंछे जा सकते हैं। जैसे राजीव खंडेलवाल किसी राजनेता से यह प्रश्न नहीं पूँछ सकते कि आप ने अब तक कोई घपला किया है या नहीं ?सच बोल रहे हैं कि झूठ इसका निर्णय पोलीग्राफ टेस्ट करेगा । जैसे कि यह पूँछा जा सकता है कि “शादी से पहले आप ने किसी स्त्री या पुरुष से शारीरिक सम्बन्ध बनाए हैं या नहीं?” “शादी के बाद किसी स्त्री या पुरुष से शारीरिक सम्पर्क बनाया है या नहीं?” “यदि बनाया भी है तो उंगली पर गिना जा सकता है या नहीं?” यदि हाँ बोलेंगे तो पूरा परिवार सुन और देख रहा है, प्रतिष्ठा और पत्नी दोनों खोने की आशंका है और वह सच बोल रहा है या झूठ इसका निर्णय झूठ पकड़ने वाली मशीन करेगी, जिसे अंतिम माना जाएगा। जैसे “‘गे राइट्स’ के बारे में आप का क्या ख्याल है?” “क्या आप ने पुरुष होते हुए किसी पुरुष से शारीरिक सम्बन्ध बनाए हैं?” “इस आर्थिक मन्दी के दौर में जबकि हर व्यक्ति महंगाई से त्राहि त्राहि कर रहा है,सोंच कर बताइए यदि आपके विवाह के पूर्व धारा 377 समाप्त कर दी जाती, तो क्या आप स्त्री से विवाह करके बाल बच्चों के फिजूल के खर्चीली झंझट के चक्रव्यूह में फँसना पसन्द करते या किसी ‘गे’ से विवाह कर सभी खर्चों पर पूर्ण विराम लगा देते?” इस प्रश्न पर आपको दो लाइफलाइन दी जाएगी, जिससे आप अपने शुभ चिंतकों से विचार-विमर्श कर सकते हैं। किंतु घोर परम्परावादी माता पिता से फोन पर विचार मत माँगिएगा वर्ना आपकी शारीरिक सुरक्षा और पैतृक सम्पत्ति को खतरा भी उत्पन्न हो सकता है
राजीव खंडेलवाल को समझा दिया गया है कि प्रश्न किस स्तर के होने चाहिए। उनसे यह भी कह दिया गया है यदि समझ न आये तो उदाहरण के रूप में सलमान खान के धारावाहिक ‘दस का दम’ से कुछ प्रश्न लिए जा सकते हैं, जैसे कि-“कितने प्रतिशत भारतीयों को घर वाली से बाहर वाली ज्यादा आकर्षित करती है?” “कितने प्रतिशत भारतीय विवाहित होने के बावज़ूद घर के बाहर अपनी प्यास बुझाते हैं?” “कितने प्रतिशत भारतीय ऑफिस जाने से पहले अपनी पत्नी को पार्टिंग किस देते हैं?” “कितने प्रतिशत भारतीय अपने पत्नी की पसंद का धारावाहिक देखते हैं?” आदि आदि................
‘हिन्दी का श्राद्ध’
अगले दिन मैं भी नाई की दुकान पर जाकर सिर घुटा दिया। अगले दिन जब इष्टदेव जी से मुलाकात हुई तो उन्होने आश्चर्य जनक दृष्टि से पूछा कि अरे यह क्या? आप के पिताजी तो अभी जीवित हैं तो फिर आपने सिर क्यों घुटा लिया?हमने कहा कि पिताजी तो अभी जीवित हैं किंतु हम सब की एक माता जी रही हैं, जिन्हें पूरे राष्ट्र की माता होने का गौरव प्राप्त था,परलोक सिधार चुकी हैं, मैं सोंचता हूँ कि पितृ-पक्ष में उन्हें भी पिंड–दान और तर्पण करना चाहिए सो उन पर श्रद्धा प्रदर्शित करने के लिए हिन्दी पखवाड़ा मनाऊंगा। हिन्दी पखवाड़ा पितृ-पक्ष में मनाया जाता है, जिसका उद्देश्य राष्ट्रभाषा हिन्दी का श्राद्ध करना और उसकी मृत-आत्मा को शांति प्रदान करने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करना। किंतु जिस प्रकार इसे मनाया जाता है उस पर मुझे आपत्ति है। प्रति वर्ष सभी सरकारें एक सर्कुलर ज़ारी करती हैं कि देश के सभी सरकारी कार्यालयों में हिन्दी पखवाड़ा मनाया जाएगा और हिन्दी में काम-काज को दिखावटी रूप से प्रोत्साहित किया जाएगा, यह और बात है कि हिन्दी पढ़ने,लिखने, और बोलने वाला वर्ष भर हीन भावना से ग्रस्त रहता है,मात्र हिन्दी पखवाड़े में उसका स्वाभिमान जागता है और फिर वर्ष भर के लिए कुंभकरणीय निद्रा में सो जाता है। मेरा मानना है कि हिन्दी पखवाड़े में साहित्यिक कार्यक्रमों के आयोजन और पुरष्कार वितरण के बज़ाय दो मिनट का मौन रखना अधिक लाभप्रद रहेगा,क्योंकि जहाँ दुनिया एक तरफ बाज़ार की आर्थिक मंदी और उससे उपजी महँगाई से जूझ रही है वहीं सरकार झूठ-मूठ में पानी की तरह पुरष्कारों पर पैसा बहा रही है,ऐसे में दो मिनट का मौन ज्यादा लाभप्रद सिद्ध होगा, साथ ही देश की अर्थ–व्यवस्था पर अतिरिक्त भार भी नहीं पड़ेगा और घंटों के उबाऊ कार्य-क्रमों से मुक्ति भी प्राप्त हो जाएगी।उन्होंने कहा श्राद्ध तो पितरों का किया जाता है न कि माताओं का अन्यथा इस पक्ष का नाम मातृ-पक्ष नहीं रखा होता? मैने कहा जो भी हो प्राचीन भारत में पुरुषों को स्त्रियों से ज्यादा अधिकार दिया गया था, तभी तो शास्त्र कहते हैं कि “यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवताः” अर्थात जहाँ पर स्त्रियों की पूजा होती है वहीं पर देवताओ का वास होता है। मैने प्रश्न किया कि स्त्रियों का श्राद्ध न करना उनके साथ भेद-भाव नहीं है ?क्या उनकी मृत आत्मा को भूख-प्यास नहीं लगती होगी? मैने कहा-आज जमाना बदल रहा है।आज की स्त्रियाँ पुरुषों से चार कदम आगे-आगे भाग रही हैं,पुरुष उनके मुकाबले बहुत पीछे छूट गए हैं। आज सरकार संसद से लेकर ग्राम पंचायत तक आरक्षण की व्यवस्था कर उनका उत्थान करने पर प्रतिबद्ध है और आप किस दुनिया में जी रहे हैं।मैने तो सोंच लिया है कि केन्द्र सरकार को एक पत्र लिखूंगा जिसमें यह सुझाव होगा कि सभी सरकारी कार्यालयों के लिए एक सरकुलर जारी किया जाय कि पितृ-पक्ष में मनाए जाने वाले हिन्दी पखवाड़े में पन्द्रहों दिन सभी हिन्दी प्रेमियों को सहित्यिक आयोजनों में श्वेत वस्त्र धारण करके यदि उनके पास हो तो श्वेत वर्णीय कुर्ता-धोती में आना होगा और नित्य दो मिंनट का मौन धारण करना होगा। साथ ही यह भी निर्देश होगा कि आज के इस आर्थिक मन्दी और महँगाई के दौर में साहित्यिक आयोजनों में मृत भाषा के कवियों और लेखकों पर पुरष्कार के रूप में पैसा बहाने की आवश्यकता नहीं है, ऐसा करना सरकारी अनुदानों का दुरुपयोग माना जाएगा और दोषी पाए जाने वालों के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही भी की जा सकती है । इसके बज़ाय सरकारी कार्यालयों में राष्ट्र-भाषा हिन्दी की मृत आत्मा की शांति के लिए दो मिनट का मौन रखने का प्रावधान किया जाना चाहिए और हिन्दी दिवस को राष्ट्रीय शोक दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिए और इस दिन राष्ट्रीय ध्वज को झुका दिया जाना चाहिए। इस दिन सरकारी कार्यालयों में राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया जाना चाहिए, इसी से हिन्दी की मृत आत्मा को शांति तथा मुक्ति पाप्त होगी।
Monday, September 7, 2009
मुफ्त और जबरदस्ती शिक्षा-
आज सरकारी विद्यालयों की दशा यह चीख चीख कर बता रही है कि सरकार उनका कितना ध्यान रखती है । कहीं विद्यालय हैं, तो भवन नहीं,कहीं बच्चे हैं, तो अध्यापक नहीं, कहीं अध्यापक हैं, तो बच्चे नहीं और कहीं किताबें नहीं पहुँचीं। कहीं बागीचे में कक्षाएं चल रहीं हैं, कहीं जाड़े की गुनगुनी धूप में कक्षाएं चल रही हैं। कहीं अध्यापक हैं तो सरकार के पास उन्हें देने के लिए पैसा नहीं है। वैसे जब से नीतीश जी ने सत्ता सम्भाली है तब से अध्यापकों के वेतन समय से मिल जा रहे हैं। जब लालू जी और राबड़ी जी की सरकार थी तो यह मान कर चला जाता था कि ये सरकारी विद्यालय उस भारत के हैं जहाँ कभी गुरुकुल शिक्षा प्रणाली थी।गुरु जी के राशन पानी की जिम्मेदारी शिष्यों के कन्धों पर होती है जिसे वे भिक्षाटन से पूरी कर सकते हैं । आज के मास्टर साहब तो काश्तकार परिवार से हैं लिहाजा अपनी रोटी दाल का जुगाड़ खेती किसानी से बिना भिक्षाटन के भी पूरी कर सकते हैं ।
बिना पैसे के मिली चीज़ की गुणवत्ता की कोई गारंटी नहीं होती ।उसी तरह ज़बरदस्ती कराए गए किसी काम के गुणवत्ता की भी कोई गारंटी नहीं होती है। जिस प्रकार से प्रेशर कुकर की खरीद के समय फ्री मिले इलेक्ट्रिक प्रेस की कोई गारंटी नहीं, उसी तरह सरकार द्वारा फ्री में दी जाने वाली शिक्षा की गुणवत्त्ता की अपेक्षा करना मूर्खता है। दर असल सरकार के साथ ज़बर्दस्ती की जा रही है जो उसे वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुसार शिक्षकों को वेतनमान देना पड़ रहा है और पूरे देश के शिक्षकों और विद्यालयों के स्टाफ को वेतन देना पड़ रहा है। अगर यह उद्योग की परिभाषा में आता तो सरकार इसे सिक इन्डस्ट्री घोषित कर प्राइवेट सेक्टर में देकर पल्ला झाड़ लेती
किंतु सम्विधान है कि उसे इस आर्थिक मन्दी के दौर में भी जबर्दस्ती आर्थिक बोझ उठाना पड़ रहा है, इसी लिए अधिनियम में कम्पल्सरी शब्द का प्रयोग किया गया है।
सरकारी विद्यालयों में शिक्षा का स्तर तब से गिरना प्रारम्भ हुआ है, जबसे सरकारी अनुदान और सुविधाएं वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुसार देना शुरु हुआ है। इस माइने में लालू जी और राबड़ी जी की सोंच का लोहा मानना चाहिए। उनकी सोंच के अनुसार जब हमारे देश में गुरुकुल शिक्षा प्रणाली थी और शिष्य भीख माँग कर न केवल अपना और गुरु जी के परिवार का भी पेट भरते थे, बल्कि पढ़ लिख कर प्रकांड विद्वान भी बनते थे, तब क्या राजा महाराजा उन्हें अनुदान देते थे? अरे भाई यदि उन्हें अनुदान मिलता तो क्या प्रत्येक शिष्य गली-गली घर-घर भिक्षाम देहि,भिक्षाम देहि की आवाज थोड़ी लगाता । ज़ो शिक्षा भिक्षाटन का अन्न खाकर द्रोणाचार्य,शंकराचार्य और राम कृष्ण ने अपने शिष्यों को दे दी और कालीदास,तुलसीदास,सूरदास,कबीर दास और नानक जैसे विद्वान दे दिए, वह शिक्षा छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुसार वेतन पाने वाले क्यों नहीं दे पा रहे हैं। अरे सबका दिमाग खराब हो गया है, इसी प्रेरणा से लालू जी और राबड़ी जी के शासन काल में अध्यापकों का वेतन रोक दिया जाता था, वरना क्या सरकार के पास पैसे की कमी थी ? राजनेताओं के शान और रईसी में तो कोई कमी नहीं आई थी ।
इन सब के बावजूद् भी आज आम आदमी को सरकारी विद्यालय में अपने बच्चों को भेजना एक मजबूरी है जबकि वहाँ अच्छी शिक्षा की कोई सम्भावना नहीं है। वहीं इन स्कूलों में पढाना शिक्षको की मजबूरी है चाहे बच्चे पहुँचे या न पहुँचें। अब तो सरकार बच्चों को रिझाने के लिए दोपहर का भोजन भी दे रही है जिससे गली मोहल्ले के खाली बच्चे खाने की लालच में स्कूल पहुँच ही जाते हैं लेकिन उनकी शिक्षा का स्तर वही मुफ्त वाला ही है। एक और सुविधा हो गयी है कि एक हज़ार का खाना बाँट कर दो हज़ार का बिल भेज दिया जाता है और कागज में सरकार की योजना भी चलती है और हेड-मास्टर की ऊपरी आमदनी भी। लेकिन एक खास चीज़ जो नदारद है वह है सुशिक्षा । जो न तो मिल पा रही है और न जिसके मिलने की उम्मीद ही है ।