Monday, August 24, 2009

धन्य धन्य यह लोक तंत्र

धन्य धन्य यह लोक तंत्र-
भारत का लोक तंत्र दुनिया का बड़ा लोक तंत्र है। केवल भौगोलिक दृष्टि से ही नहीं, सैद्धांतिक दृष्टि से भी। यहाँ का लोक तंत्र कुछ मूल भूत सिद्धान्तों पर चलता है। पहला यह कि यहाँ जन प्रतिनिधि बनने के लिए यदि कोई योग्यता निर्धारित है तो यह कि वह व्यक्ति पागल या दिवालिया न हो। ऐसे में एक दुर्घटना हो सकती है कि कोई व्यक्ति चुनाव के समय ठीक ठाक हो और चुन कर संसद में पहुँच जाए,यहाँ तक तो गनीमत है, किंतु यदि उसके बाद पागल हो जाये, तो है कोई माई का लाल जो उसे अयोग्य सिद्ध कर दे।
दूसरी बात यह कि भारतीय राजनीति में कुछ तथ्य स्वयंसिद्ध होते हैं,उन्हें किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। जैसे राज-नेताओं की सम्विधान के प्रति निष्ठा स्वयंसिद्ध होती है,जनता के प्रति उनकी निष्ठा भी स्वतः सिद्ध होती है। चाहे बाढ़-राहत कोष का पैसा हो,चाहे पशुओं के चारे का पैसा हो,चाहे भूकम्प-राहत कोष का पैसा हो, सारा पैसा जनता की सेवा के लिए ही होता है, जिस पर जनता से पहले जन सेवियों का पहला अधिकार होता है; या यह कहें कि इस देश के सारे संसाधनों पर जनता से पहले जन सेवियों का प्राथमिक अधिकार होता है। जैसे किसी सरकारी अस्पताल में आम आदमी जो स्वस्थ है, चाहे लम्बी कतार में लग कर अस्वस्थ हो जाए, न केवल दिन भर की रोज़ी रोटी गवाँ देता है फिर भी वांछित दवा नहीं पा सकता, वहीं किसी मंत्री या राज नेता को उपचार करने के लिए दस-पाँच डाक्टरों की टीम बन जाती है और वह सारी सुविधायें सुलभ हो जाती हैं जिन तक आम आदमी की पहुँच मुश्किल होती है । जैसे जब भी किसी आतंकी हमले की आशंका होती है, तो सबसे पहले राज नेताओं की सुरक्षा बढ़ाई जाती है, क्योंकि सुरक्षा बलों पर पहला अधिकार नेताओं का होता है।
जब कभी किसी मंत्री जी का कफिला किसी रास्ते से जाने वाला होता है तो चरो तरफ से उसकी नाकेबन्दी इस तरह से कर दी जाती है कि आम आदमी का आना जाना ही दूभर हो जाता है । कभी कभी तो ऐसा होता है कि हम मयूर विहार से निकले हैं इन्डिया गेट की ओर और प्रगति मैदान से ही राज घाट की ओर मोड़ दिया जाता है, क्या कि मंत्री जी का काफिला आ रहा है । ऐसे में क्या किया जाये कोई चारा नहीं, क्यों कि मंत्री जी आने वाले हैं और राज मार्ग पर उनका पहला अधिकार है, जनता का बाद में ।
दूसरी बात यह है कि भारतीय लोक तंत्र में कमीशन खोरी को भ्रष्टाचार नहीं माना जाता है, बल्कि भ्रष्टाचार और राजनीति का चोली दामन का साथ माना जाता है। जैसे पुष्प का सुगंध से, चाँद का गगन से दीपक का अगन से जो अटूट रिश्ता होता है उसी प्रकार राजनेता का कमीशन से अटूट रिश्ता होता है । उसके बिना वह निष्प्राण होता है । राजीव जी के समय की बात है कि कुछ सिरफिरे लोगों ने जो उस समय विपक्ष में थे अचानक सदन में शोर मचाना शुरू कर दिया कि भारतीय सेना के लिए बोफोर्स की खरीद में रिश्वत खोरी की गई है जो भ्रष्टाचार है और भ्रष्टाचारियों को लोक तंत्र के सरकार में बने रहने का कोई अधिकार नहीं है । असल में यह मामला भ्रष्टाचार का नहीं दृष्टि दोष का है। विपक्ष में बैठे नेता को जो भ्रष्टाचार दिखाई देता है, वही सत्ता में बैठे नेता को कमीशन दिखाई देता है और इसके उलट, जब वह सरकार में होता है तो उसे भी भ्रष्टाचार नहीं दिखाई देता । इसी दैवी प्रेरणा से संचालित होकर कंग्रेस ने सम्विधान में लाभ के पद की परिभाषा को दुरुस्त कर दिया, जो बाबा अम्बेडकर की ऐतिहासिक भूल का परिणाम थी। अब ऐसा कोई अवसर नहीं आएगा जब सरकार में लाभ के पद पर बैठे राज नेता को संसद की सदस्यता से हाथ धोना पड़ जाये । दर असल इस सम्वैधानिक भूल सुधार में सभी राज नेताओं के उर्वर मस्तिष्क का योगदान है जो भारतीय लोक तंत्र के नेताओं का मैग्ना कार्टा कहा जा सकता है, जिससे उंनको भ्रष्टाचार के पैदाइशी राज मार्ग पर अबाध रूप से आगे बढ़ते रहने का सार्वभौमिक अधिकार प्राप्त हो गया है। अरे मैं तो भटक गया था, चर्चा कर रहा था बोफोर्स के मुकद्मे की। जन सेवकों पर रिश्वत खोरी का मुकद्मा चलाया गया, जो बीसों साल तक चला। परिणाम फिर वही ढाक के तीन पात। दस बार उच्च न्यायालय और पाँच बार उच्च्तम न्यायालय का चक्कर लगाने के बाद भ्रष्टाचार के रिश्वत की रकम कमीशन में बदल गयी और यह साबित हुआ कि कमीशन और रिश्वत्खोरी में फर्क होता है। यह व्यापार का नियम है कि विकसित देशों में बिना किसी कमीशन के भुगतान के कोई सौदा नहीं होता,तो भारत जैसे देश में तोप की सौदेबाज़ी में खाए गए कमीशन को रिश्वत खोरी से संग्यापित करना कानून की गलत व्याख्या करना होगा अतःआरोपियओं को बरी किया जाना चाहिए ।

जब मैं अपनी आय की तुलना राज नेताओं की आय से करता हूं तो लगता है कि कि बाढ़ और सुनामी का मुकाबला करने की कोशिश कर रहा हूँ । जो व्यक्ति सड़क-छाप हो, अगर उसे किसी दैवी कृपा से सदन तक पहुँचने का अवसर मिल जाय और उसके भीतर राजनैतिक वाइरस मौजूद हों तो मैं यह गारंटी से कह सकता हूँ कि वह पाँच साल में इतना कमा लेगा जितना उद्योगपति उतने समय में उतना नहीं कमा सकता है। आज जहाँ छोटे सरकारी पदों पर बैठे लोगों को भी आय कर देना पड. रहा है,जिसका कि मुश्किल से दाल रोटी का जुगाड़ हो पाता है। वहीं नेताओं पर और उनसे साठ गाठँ किए जमा खोरों पर आय कर विभाग की नज़र भी नहीं जाती बल्कि वह सुन्दर-सुन्दर अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के घरों पर छापे मार कर कोटा पूरा करता है।किंतु राज नेताओं के पास करोड़ों-अरबों की सम्पत्ति की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता । संसद में विश्वास मत के दौरान करोडों रुपये रिश्वत के रूप में लेने का आरोप लगा और टी वी चैनलों पर दिखाया भी गया, जिसकी जाँच के लिए संसदीय समितियाँ भी बनीं, लेकिन महीनों की औपचारिक माथा पच्ची करने के बाद यह भी पता नहीं लगा पाईं कि किस खाते से पैसा निकला, कहाँ से चला और किस उद्देश्य से कहाँ पहुंचा । मेरा ख्याल है कि अगर लीपापोती ही करनी थी तो उसे यह रिपोर्ट दे देना था कि संसद में दिखाया गया रिश्वत का रूपया नकली था, इस लिए किसी तरह की जाँच की जरूरत ही नहीं है, क्योंकि भ्रष्टाचार का मुकद्मा बनने के लिए नोटों का असली होना चाहिए, नकली नोटें लेना भ्रष्टाचार की परिभाषा में नहीं आता । इस लिए किसी जाँच का सवाल ही नहीं उठता।

महात्मा गान्धी जी ने कांग्रेस को नारा दिया था “जीयो और जीने दो”, जिसे सभी दलों ने संशोधित रूप में सर्व सम्मति से अपना लिया है वह यह कि “खाओ और खाने दो”। सत्ता पक्ष खाता है और उसी तरह खाता है, जैसे कि सब्ज़ी मंडी में आवारा साँड़ दुकानदारों के हट-हट करने और लगातार डंडा बरसाने के बावज़ूद भी दो गाल खा ही लेता है । सदन में विपक्ष हल्ला करता रहता है, जाँच समितियाँ बनती रहती हैं, वे या तो लीपा पोती कर रिपोर्ट दे देती हैं या तो उसे ठंडे बस्ते में डाल देती हैं। जो रिपोर्ट दे दी, सो अंतिम सत्य, जिसे सरकारी तंत्र की गोपनीयता के चादर में लपेट कर दफन कर दिया जाता है और जिसे सूचना के अधिकार की गेती से भी खोद कर नहीं निकाला जा सकता है। जब विप्क्ष का पाला पाँच साल बाद बदल जाता है और वह सत्तासीन होता है तो वह भी उसी नीति पर चलता है। जैसा कि राजीव गान्धी जी ने स्वीकार किया था कि जो पैसा पंचायतों में भेजा जाता है वह पहुँचते पहुँचते 100 पैसे से 15 पैसा शेष रह जाता है, और 85 पैसा रास्ते मे ही पता नहीं क्या हो जाता है। ऐसी बात नहीं कि उन्हें पता नहीं था कि 85 पैसा कहाँ जाता है? देश के बैंकों में जाता है या स्विश बैंकों में जाता है। इस लोक तंत्र में खाओ और खाने दो का सिद्धांत सर्व व्यापक है और सर्व मान्य भी। इसे चुनौती देना चीनी साड़ को लाल कपड़ा दिखाने जैसा है ,जैसे नेशनल हाइवे अथॉरिटी के इंजीनियर सत्येन्दर दुबे हत्या कांड, पी डबल्यू डी के उस इंजीनियर का हत्याकांड, जिसने मायावती जी के जन्म दिन मनाने के लिए वसूली जाने वाली रकम देने से इंकार कर दिया था। ऐसी सूचियाँ लम्बी हैं और समय सीमित ।
विश्व के सारे सभ्य कानून यह मानते हैं कि आपराधिक दुराशय के बिना किया हुआ कोई भी कार्य अपराध की परिभाषा की परिधि में नहीं आता। किंतु दिल्ली पुलिस ने किस दैवी प्रेरणा से कोबरा पोस्ट.कॉम के पत्रकार अनिरुद्ध बहल और सुहासिनी राज को भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के आरोप में चार्ज शीट किया, जिन्होंने संसदीय भ्रष्टाचार का खुलासा किया जिसमें संसद में प्र्श्न पूँछने के लिए संसदों को पत्रकारों से रिश्वत लेते स्टिंग ऑपरेशन का वीडियो दिखाया गया था। जब कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भ्रष्टाचार को बेनकाब करने के लिए पत्रकारों द्वारा स्टिंग ऑप्रेशन को सराहनीय बताया गया था, जिसकी वजह से बी एम डबल्यू कांड में वकील और सरकारी वकील की मिली भगत से गवाह को फोड़ते दिखाया गया था। ऐसे में जब स्टिंग ऑपरेशन करने वाले पत्रकारों को लोक तंत्र का प्रहरी कह कर उच्चतम न्यायालय द्वारा सराहा जा रहा है, वहीं पुलिस से साठ गाँठ कर उन्हें आरोपित कर किस कानून की रक्षा की जा रही है मेरे समझ में नहीं आ रहा है। तभी तो यह बात निकलती है मुख से ‘धन्य धन्य यह लोक तंत्र ’ । -विनय कुमार ओझा

Wednesday, August 19, 2009

आखिर कब तक टालेंगे पुलिस सुधार ?

आखिर कब तक टालेंगे पुलिस सुधार ?
जम्मू कश्मीर के शापियाँ बलात्कार और हत्या मामले चीख-चीख कर कह रहे हैं कि जिस विभाग पर जनता की सुरक्षा की जिम्मेदारी है, वही अगर उसके अधिकारों का भक्षक बन जाए तो उनके विरुद्ध जाँच की कोई निष्पक्ष संस्था नहीं है.उसी पुलिस के द्वारा जाँच होने पर कितनी न्यायोचित जाँच की सम्भावना है, यह किसी से छिपा नहीं है. पुलिस जब चाहे जिस मामले को ले देकर निपटा दे, उसकी कोई जवाबदेही नहीं है, क्योंकि उसके ऊपर के अधिकारियों को अपने रिश्वत के हिस्से से अधिक की फिक्र नहीं होती है. कहने को सीबीसीआईडी जैसी संस्था राज्यों में बनी है, किन्तु मधुमिता शुक्ला हत्या मामले को जिस ढंग से निपटाने की कोशिश की गयी, उससे उसके कामकाज के तरीके का आभास मिल जाता है. आरुषी हत्या मामले में भी इस तरह लीपापोती की गई कि सारे सबूत नष्ट हो गए. अंत में सीबीआई को केस देकर पल्ला झाड़ लिया गया. यह भी साधारण बात नहीं हैं. यक्ष प्रश्न यह है कि हथियारों से लेकर प्रशिक्षण तक पुलिस को तकनीकी रूप से पिछड़ा रखा जा रहा है जबकि अपराधी हाइटेक होते जा रहे हैं. तुका राम की तरह पुरानी रायफल लिए एके सैंतालीस से लैस आतंकी को पकड़ने के लिए जान की बाजी लगाने की हिमाकत हर पुलिस वाला नहीं कर सकता. मुम्बई हमले के बाद नेशनल इनवेस्टिगेटिव एजेंसी का गठन तो हो गया, पर अभी तक एक भी घटना की जाँच उसने शुरू नहीं की. घटना के समय तो सरकार ने बड़ी तेज़ी दिखाई, क्योंकि उस वक़्त चुनाव करीब था और जनता में आक्रोश बहुत ज्यादा था, उसके बाद उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया.

सी बी आई को इस्तेमाल करने का आरोप लगभग सभी सरकारों पर लग चुका है लेकिन उसको मजबूत करने के लिए आज तक कोई विशेस प्रयास नहीं हुआ. आज जिस तरह से अपराधियों द्वारा अपराध राज्यों की सीमा तोड़ कर अंतर-राज्यीय विस्तार लेता जा रहा है ऐसे में किसी ऐसी जाँच एजेंसी की जरूरत पर बहस को दबाया जा रहा है जो अमेरिकी संस्था एफ बी आई की तर्ज़ पर बिना राज्यों की सहमति के जाँच को आगे बढ़ा सके और सबूत नष्ट होने से बचाया जा सके . ऐसा क्यों किया जा रहा है किसी से छिपा नहीं है. अब समय आ गया है जब यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि न्याय जल्द मिले और लोक सेवक द्वारा किए गए अपराध के लिए ज्यादा दंड दिया जाय, साथ ही उनके निपटारे के लिए विशेष न्यायालय बनें और जो कम समय मे विचारण कर सकें, जिससे सामान्य जनता से लेकर राजनेताओं तक यह संकेत पहुंचे कि त्वरित और समुचित न्याय होने की सम्भावना है और न्यायिक प्रक्रिया में आम जनता के विश्वास को बहाल किया जा सके.

चाहे राज्य की पुलिस, जो अपने थाने की सीमा से बाहर किसी संग्येय अपराध की जाँच से भी पल्ला झाड़ लेती है और प्राथमिकी भी दर्ज़ करना मुनासिब नहीं समझती, वह पुलिस कई राज्यों की सीमाओं को प्रभावित करने वाले अपराधों के साथ कैसी जाँच करेगी,कहने लायक नहीं है. कुछ अपराध जैसे नशीले पदार्थों की तस्करी,फर्ज़ी नोटों का आतंक-वादियों द्वारा प्रचलन और आतंकी हमलों की जाँच जिनके तार विदेशों से जुड़े हैं और ज़ाली क्रेडिट कार्ड और साइबर अपराध जिनके जाँच का तकनीकी प्रशिक्षण राज्य की पुलिस को प्राप्त नहीं है और उनकी जाँच में लगने वाले आधुनिक उपकरण भी उपलब्ध नहीं हैं, कैसे करेगी यह सोंचने की जरूरत हमारे राजनेताओं को महसूस नहीं होती,क्योंकि सुरक्षा में दिन रात कमांडोज और विशेस रूप से प्रशिक्षित एस पी जी लगी रहती है,जिसे मुम्बई जैसे आतंकी हमलों की सूरत में भी त्वरित गति से राहत के लिए नहीं भेजा जा सकता,तो आम जनता की सुरक्षा की क्या गारंटी है? इतने पर भी यदि आज हमारे राजनेता यदि ऐसे कानून और विशेस पुलिस की जरूरत नहीं समझते तो यह साफ हो जाता है कि वे किस सीमा तक आम जनता के हितों की चिंता करते हैं ?

प्र्श्न यह है कि कब तक हम सामान्य हत्या और अपराध जो कि भावावेश और आत्म –नियंत्रण के आभाव मे हो जाते हैं और व्यावसाइक अपराधियों द्वारा धन उगाही के लिए किए गए आर्थिक अपराध को, हम कब तक एक ही चश्में से देखते रहेंगे? उनको साबित करने के लिए साक्ष्य की एक जैसी प्रक्रिया रख कर हम गलती कर बैठते हैं, क्योकि एक तरफ जो सामान्य रूप से ऐसा व्यक्ति है, जिसके विरुद्ध अन्य कोई आपराधिक मामला दर्ज़ नहीं है और दूसरी तरफ, जिसके ऊपर दर्जनों संगीन अपराधों की लम्बी सूची है और जिनमें भय के कारण साक्षी के साक्ष्य मिलने की बहुत ही कम सम्भावना है, दोनों को एक ही चश्में से देखकर निर्दोष मानकर विचारण करना और जमानत पर रिहा करना क्या सही है? मकोका और टाडा जैसे कनूनों की जरूरत आज नहीं है, आज यह कहना गलत है और उसका इस आधार पर विरोध करना कि मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हैं और भी गलत है. मानवाधिकार का क्या अर्थ है? प्रश्न यह है कि क्या हज़ारों लोगों की जो कि निर्दोष थे और आतंकी हमले के शिकार हुए, हत्या करने वाले दरिन्दे के मानवाधिकारों की वकालत करने वाले लोग आतंक वादियों को किस तरह से मानव की परिभाषा में लाते हैं, जो दानव का काम कर रहे हैं,क्या उनकी दृष्टि में आतंक-वादियों की गोलियों के शिकार हुए उन हज़ारों लोगों का भी कोई मानवाधिकार है भी कि नहीं? आज यह बात साफ होनी चाहिए कि विधाइका मे बैठे लोग किसकी वकालत कर रहे हैं? किसका मानवाधिकार और उसकी कोई सीमा भी है कि नहीं? आज समलैंगिक सीना ठोंक कर जिस मानवाधिकार की दुहाई दे रहे हैं उसे किसी भी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता है . माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय जिस परिप्रेक्ष्य में निर्णय दिया उसे ध्यान में रख कर ही उसकी व्याख्या करनी चाहिए .उसका विचार विन्दु उन निर्दोश अवयस्क बच्चों के मानवाधिकारों की रक्षा करना था जो कि यौन शोशण के शिकार हुए हैं उन्हें धारा 377 का अपराधी मान कर व्य्वहार करना उनके सम्वैधानिक और मूल अधिकारों का उल्लंघन करना है जो मानवाधिकारों का हनन है और ऐसी धारा को बने रहने का कोई औचित्य नहीं है .किंतु यह भी सच है कि ऐसी किसी धारा का भी होना जरूरी है जो उन लोगों के अधिकारों की रक्षा करे जिनकी इच्छा के विरुध जबरन अप्राक्रितिक मैथुन का शिकार बनाया जाय .अन्यथा पुरुशों की इज़्ज़त भी खतरे में पड़ जाएगी और उन्हें एफ आई आर दर्ज़ कराने के लिए कोई धारा नहीं मिलेगी .

अभी हाल में टाइम्स ऑफ इन्डिया में एक सर्वे का आँकणा छपा था जिसमें 84 % लोगों ने मौज़ूदा पुलिस व्यवस्था की कार्य प्रणाली की निष्पक्षता पर अविश्वास व्यक्त किया था. यह कितनी गम्भीर बात है और इसे गम्भीरता से न लेना और भी गम्भीर बात है, जिसे मौज़ूदा सरकार गम्भीरता से लेने की जरूरत नहीं समझती क्योंकि उनकी सुरक्षा के लिए एस पी जी और जेड कटेगरी की सुरक्षा मिली हुई है.ढेर सारे कमीशनों की सिफारिशों की अनदेखी करते हुए वर्तमान पुलिस व्यवस्था में सुधार किए बिना उसी के भरोसे जनता को छोड़ देना क्या मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं है? आज हमारे सामने यक्ष प्रश्न यह है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधे ? यदि हम यह अपेक्षा रखते हैं कि बिल्ली खुद घंटी लाकर हमें देगी और कहेगी कि इसे हमारे गले में बाँध दो तो यह सपना नहीं पूरा होने वाला .
-विनय कुमार ओझा