मुझे मालूम न था ऐसे भी दिन आएंगे।
रहनुमा राह्जनों के शिविर में लाएंगे ॥
बढ़ा के दोस्ती का हाथ वे हमारी तरफ -
हमारे दुश्मनों से हाथ भी मिलाएँगे॥
सियाह रात भी रोशन हो चाँदनी जैसी-
दिए हम आस के पलकों पे यूँ जलाएँगे॥
घर पे रह जाएगा मालिक भी हाथ मलता हुआ-
चमन के माली ही फल लूट के खा जाएँगे॥
फिर भी ये है गुमाँ चमन हरा भरा होगा-
शर्त ये है इसे अपना लहू पिलाएँगे॥
कि नाउम्मीदी की तपिश ने जिनको सोख लिया-
ख़ुशी के सपने उन आँखों मे झिल्मिलाएंगे ॥
मुझे मुश्किल मे देख कर जो खुश होते थे कभी-
मेरी खुशियों को देख कर वे तिल्मिलाएंगे ॥
-विनय ओझा 'स्नेहिल '