Tuesday, February 19, 2008

कविता


मुझे मालूम न था ऐसे भी दिन आएंगे।

रहनुमा राह्जनों के शिविर में लाएंगे ॥

बढ़ा के दोस्ती का हाथ वे हमारी तरफ -

हमारे दुश्मनों से हाथ भी मिलाएँगे॥

सियाह रात भी रोशन हो चाँदनी जैसी-

दिए हम आस के पलकों पे यूँ जलाएँगे॥

घर पे रह जाएगा मालिक भी हाथ मलता हुआ-

चमन के माली ही फल लूट के खा जाएँगे॥

फिर भी ये है गुमाँ चमन हरा भरा होगा-

शर्त ये है इसे अपना लहू पिलाएँगे॥

कि नाउम्मीदी की तपिश ने जिनको सोख लिया-

ख़ुशी के सपने उन आँखों मे झिल्मिलाएंगे ॥

मुझे मुश्किल मे देख कर जो खुश होते थे कभी-

मेरी खुशियों को देख कर वे तिल्मिलाएंगे ॥

-विनय ओझा 'स्नेहिल '