वक़्त भर देता है हर एक ज़ख्म की गहराईयाँ ।
फिर भी रह जाती हैं क्यों ये मातमी परछाइयाँ ॥
या खुदा एक पल में दिखता दो तरह ज़लवा तेरा-
एक तरफ मातम का डेरा एक तरफ शहनाइयाँ ॥
स्याह रातों से न जाने दिल क्यों घबराने लगा-
साँप सी डसती हैं मुझको शाम की तन्हाइयाँ ॥
दफन अश्कों ने किया ग़म के कई तूफान को -
दर्द भरती हैं नसों में मद भरी पुर्वाईयाँ ॥
जो सबेरे उठ गए मीलों सफर से आ चुके-
रह गए बिस्तर पे जो लेते रहे अन्गडाइयां॥
जिनको चुन कर भेजा अपनी रहनुमाई के लिए -
बैठ कर सदनों में वे लेते हैं अब जम्हाइयां ॥
विनय ओझा 'स्नेहिल'
Monday, December 10, 2007
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