Thursday, November 22, 2007

ठोकरें राहों में मेरी कम नहीं।
भी देखो आँख मेरी नम नहीं।

जख्म वो क्या जख्म जिसका हो इलाज-
जख्म वो जिसका कोई मरहम नहीं।

भाप बन उड़ जाऊंगा तू ये न सोच-
मैं तो शोला हूँ कोई शबनम नहीं।

गम से क्यों कर है परीशाँ इस क़दर -
कौन सा दिल है कि जिसमें ग़म नहीं।

चंद लम्हों में सँवर जाए जो दुनिया -
ये तेरी जुल्फों का पेंचो-ख़म नहीं।

दाद के काबिल है स्नेहिल की गज़ल-
कौन सा मिसरा है जिसमें दम नहीं।

-विनय ओझा ' स्नेहिल'

Friday, November 2, 2007

जिंदगी

ज़िन्दगी क्यों उदास लगती है ।
मौत जब आस- पास लगती है ॥

मुझसे वह बिन मिले नहीं जाता -
कुछ तो दिल में खटास लगती है॥

कितने अर्सों से देखता हूँ उसे -
फिर भी हर लम्हा ख़ास लगती है॥

जितनी कोशिश करो बुझाने की -
उतनी ही ज्यादा प्यास लगती है॥

मर के भी आंख थी खुली उसकी -
उनको मेरी तलाश लगती है ॥

- विनय ओझा "स्नेहिल "